ॐ गं गणपतये नमः
उर्दू के प्रसिद्ध शायर ख्वाजा दिल मोहम्मद जी ने भी सरल उर्दू पद में श्री गीता जी का श्लोकशः अनुवाद किया है। वंदनीय सदगुरुदेव "स्वामी श्रीगीतानंद जी महाराज" के आशीर्वाद से ये छोटा सा प्रयास है हमारी तरफ से गीता जी का उर्दू पद्यानुवाद पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई है। आशा है कि ये गीता प्रेमियो में दिव्य रस का संचार करता हुआ उन्हें आध्यात्मिक मंज़िलो तक ले जाएगा।
रविवार, 9 जुलाई 2017
गुरुवार, 6 जुलाई 2017
आप जानते है भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल : चातुर्मास कहलाता है (भाग - दूसरा)
ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आप ने शयनी एकादशी के विषय में पढ़ा। देवशयनी एकादशी के साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है। कल इस विषय के बारे में पढ़ा। आज आगे बढ़े
इन चार महीनों के दौरान मनोरम माहौल और प्रफुल्लित चित्त के साथ प्रकृति के शांत वातावरण में ईश्वर की आराधना पर खासतौर से बल दिया गया है। व्यक्ति के किसी मांगलिक कार्यक्रमों में लिप्त नहीं होने से वह बाहरी जवाबदारियों से मुक्त होकर ईश्वर की भक्ति में ध्यान लगा सकता है। चातुर्मास के चार महीनों यानी सावन, भादौ, आश्विन और कार्तिक माह में खाने-पाने और व्रत व उपवास की सलाह दी गई है। चातुर्मास में व्यक्ति की पाचनशक्ति कमजोर पड़ जाती है, इसलिए इस संपूर्ण महीने में व्यक्ति को व्रत व उपवास करने की सलाह दी गई है। खासकर कि इस समय के दौरान पड़ने वाली तमाम एकादशियों में निर्जला उपवास किया जाता है। यदि सभी एकदशियों में निर्जल उपवास नहीं हो पाए तो कम से कम तीन एकादशी (देवशयनी, जलजिलनी और देव उठनी एकादशी) के दिन निर्जल उपवास जरुर करना चाहिए एेसा संतजनों का कहना है।
गुरु पूर्णिमा, हरियाली तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, विजयदशमी, अहोई अष्टमी, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज, छठ पूजा और नदी स्नान के विशेष महत्व वाली कार्तिक पूर्णिमा ऐसे ही मौके हैं। चातुर्मास में 'पितृपक्ष' का पखवाड़ा और नवरात्र के नौ दिन ऐसे अवसर होते हैं, जब स्वास्थ्य और अध्यात्म दोनों की दृष्टि से आम गृहस्थ को विशेष निर्देश की जरूरत होती है।
गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्व
गुरु का स्थान गोविंद से आगे यूं ही नहीं माना गया। चतुर्मास में भूलोक की पालना का भार गुरुवर्ग के भरोसे छोड़कर ही भगवान श्री विष्णु शयन करने पाताल लोक जाते हैं। इसीलिए गुरु भी इस चतुर्मास में कहीं नहीं जाते। शिष्यों को पूर्व सूचना के साथ पूर्व निर्धारित एक ही स्थान पर रहते हैं। इसीलिए चतुर्मास की पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाता है। शिष्य गुरु को साक्षात अपने सामने बिठाकर पूजा करते हैं। (गुरु पूर्णिमा का वर्णन अगले ब्लॉग में करुँगा)
आयुर्वेद की दृष्टि से चातुर्मास :
आयुर्वेद की दृष्टि से भी उपवास के लिए यह समय उत्तम माना गया है। वजह यह है कि श्रावण के महीने में हरी सब्जियों में सूक्ष्म जंतुओं के होने की संभावनाए बहुत होने से अंकुरित चीजों को खाने की सलाह दी जाती है। भादों की बरसात के बाद जलवायु परिवर्तन की वजह से एकाएक गर्मी बढ़ जाती है। एेसे में यदि इंसान दही का सेवन करता है तो पित्त या अम्ल की समस्या का शिकार हो सकता है। इससे बचने के लिए दही को खाने के लिए वर्जित कहा गया है। इसके अलावा, इन आषाढ़ माह में दूध पीने से पानी से पैदा होने वाले रोग और कार्तिक माह में दाल को सेवन करने से अपच की समस्या हो सकती है, इसलिए इस दौरान इन आहार का सेवन करने की मनाही की गई है।
चातुर्मास के दौरान श्रावण महीने में विविध त्यौहारों में उपवास के अलावा भादो में पितृ तर्पण और आषाढ़ में नवरात्रि की पूर्जा-अर्चना-अनुष्ठान और उपवास द्वारा धार्मिक और आध्यात्मिक संतुलन बनाने के साथ-साथ शारीरिक आरोग्यता की दिशा में भी हमारे शास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
बुधवार, 5 जुलाई 2017
आप जानते है भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल : चातुर्मास कहलाता है (भाग - पहला)
ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! कल आप ने शयनी एकादशी के विषय में पढ़ा। देवशयनी एकादशी के साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है। इस के साथ ही चार माह तक कोई मांगलिक कार्य नहीं होता। देवोत्थान एकादशी के साथ शुभ कार्यों की शुरुआत होगी। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु पाताल लोक में सोने चले जाते है। इस कारण इन चार माह में शुभ कार्यों को वर्जित माना गया है।
पुराणों में कहा गया है कि भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चारमास पर्यन्त पाताल में राजा बली के यहाँ निवास करते हैं। आप ने विष्णु अवतार में भगवान वामन के अवतार के विषय को विस्तार से पढ़ा था।
भगवान् विष्णु का पन्द्रहवाँ अवतार : वामन अवतार
वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।जब बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ लेगयी तब से ऋषि मुनियों एवं देवताओं ने भगवान की पूजा एवं स्तुति की। राजा बलि ने भगवान विष्णु जी से चार मास तक पाताल लोक में रहने का आग्रह किया।
वर्षाकाल के चार महीने सावन, भादों, आश्विन और कार्तिक में सम्पन्न होने वाला उपवास का नाम है चातुर्मास।
चातुर्मास में व्रत के साथ-साथ कुछ नियमों का पालन करना चाहिए -
- चार मासों तक व्रती को कुछ खाद्य पदार्थ त्यागने चाहिए, इस संबंध में सिद्धांत यह है कि श्रावण मास में शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन मास में दूध और कार्तिक मास में दालें ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
- चातुर्मास्य का व्रत करने वाले को शय्या-शयन, मांस, मधु आदि का त्याग करना चाहिए। उसे जमीन पर शयन करना चाहिए, पूर्णतः शाकाहारी रहना चाहिए तथा मधु आदि रसदार वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।
- गुड़, तेल, दूध, दही, बैंगन, शाकपत्र आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। उक्त खाद्य पदार्थों के त्याग का शास्त्रों में निम्नलिखित फल कहे गए हैं -
- गुड़ त्याग से मधुर स्वर प्राप्त होता है।
- कड़वे तेल त्याग से शत्रु का नाश होता है।
- घृत त्याग से सौंदर्य मिलता है।
- शाक त्याग से बुद्धि एवं बहुपुत्र प्राप्त होते हैं।
- शाक एवं पत्रों के त्याग से पकवान की प्राप्ति होती है।
- दधि-दुग्ध त्याग से वंशवृद्धि होती है तथा व्रती गाओं के लोक में जाता है।
- चातुर्मास्य में जो व्यक्ति उपवास करते हुए नमक का त्याग करता है, उसके सभी कार्य सफल होते हैं।
मंगलवार, 4 जुलाई 2017
शयनी एकादशी महात्म्य
ॐ गं गणपतये नमः
शयनी एकादशी महात्म्य
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आज देवशयनी एकादशी है इस एकदशी को शयनी एकादशी भी कहा जाता है।
देवशयनी एकादशी पौराणिक महत्व
पुराणो के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान श्री हरी विष्णु जी चार माह तक पाताल लोक में निवास अर्थात शयन मुद्रा में चले जाते है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु जागृत होते है। इन चार माह में भगवान विष्णु जी क्षीर सागर में अनंत शैया पर शयन करते है। अतः इस अवधि में कोई भी धार्मिक कार्य नही किया जाता है।
शयनी एकादशी
युधिष्ठिर ने पूछा : भगवन् ! आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसका नाम और विधि क्या है? यह बतलाने की कृपा करें ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘शयनी’ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ । वह महान पुण्यमयी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, सब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है । आषाढ़ शुक्लपक्ष में ‘शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया । ‘हरिशयनी एकादशी’ के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभाँति धर्म का आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं ।
राजन् ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । ‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।
शनिवार, 1 जुलाई 2017
आप जानते है राधे-कृष्ण के प्रेम का आरम्भ कब कैसे कहा हुआ
ॐ गं गणपतये नमः
प्रभु के यश का श्रवण और र्कीतन दोनों हमें पवित्र करते हैं । हृदय पवित्र होता है तो प्रभु हृदय में स्थित हो जाते हैं ( प्रभु का वास सभी जीवों में है पर अशुद्ध और अपवित्र विचार, आचरण के कारण प्रभु हमारे भीतर होते हुये भी हमारे लिए अदृश्य होते हैं ) । प्रभु के हृदयपटल पर स्थ्िात होते ही अशुभ वासनायें भाग खड़ी होती हैं और शुभ और पवित्र विचार, आचरण का संचार हमारे भीतर स्वतः हो जाता है। मित्रों आप से शुरुआत राधे-कृष्ण के नाम से ही करते है राधे-कृष्ण के प्रेम को सारे संसार में पूजा जाता है कृष्ण लीला के शुरुआत अपने अराध्ये के नाम और प्रेम से करते है राधे- राधेराधे-कृष्ण के प्रेम का आरम्भ कब कैसे कहा हुआ।
देवी राधा को पुराणों में श्री कृष्ण की शश्वत जीवनसंगिनी बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि राधा और कृष्ण का प्रेम इस लोक का नहीं बल्कि पारलौक है। सृष्टि के आरंभ से और सृष्टि के अंत होने के बाद भी दोनों नित्य गोलोक में वास करते हैं।
लेकिन लौकिक जगत में श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम मानवी रुप में था और इस रुप में इनके मिलन और प्रेम की शुरुआत की बड़ी ही रोचक कथा है। एक कथा के अनुसार देवी राधा और श्री कृष्ण की पहली मुलाकात उस समय हुई थी जब देवी राधा ग्यारह माह की थी और भगवान श्री कृष्ण सिर्फ एक दिन के थे। मौका था श्री कृष्ण का जन्मोत्सव।

मान्यता है कि देवी राधा भगवान श्री कृष्ण से ग्यारह माह बड़े थी और कृष्ण के जन्मोत्सव पर अपनी माता कीर्ति के साथ नंदगांव आई थी यहां श्री कृष्ण पालने में झूल रहे थे और राधा माता की गोद में थी।
भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा की दूसरी मुलाकात लौकिक न होकर अलौकिक थी। इस संदर्भ में गर्ग संहिता में एक कथा मिलती है। यह उस समय की बात है जब भगवान श्री कृष्ण नन्हे बालक थे। उन दिनों एक बार एक बार नंदराय जी बालक श्री कृष्ण को लेकर भांडीर वन से गुजर रहे थे।
उसे समय आचानक एक ज्योति प्रकट हुई जो देवी राधा के रुप में दृश्य हो गई। देवी राधा के दर्शन पाकर नंदराय जी आनंदित हो गए। राधा ने कहा कि श्री कृष्ण को उन्हें सौंप दें, नंदराय जी ने श्री कृष्ण को राधा जी की गोद में दे दिया।
श्री कृष्ण बाल रूप त्यागकर किशोर बन गए। तभी ब्रह्मा जी भी वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी ने कृष्ण का विवाह राधा से करवा दिया। कुछ समय तक कृष्ण राधा के संग इसी वन में रहे। फिर देवी राधा ने कृष्ण को उनके बाल रूप में नंदराय जी को सौंप दिया।
राधा कृष्ण की लौकिक मुलाकात और प्रेम की शुरुआत संकेत नामक स्थान से माना जाता है। नंद गांव से चार मील की दूरी पर बसा है बरसाना गांव। बरसाना को राधा जी की जन्मस्थली माना जाता है। नंदगांव और बरसाना के बीच में एक गांव है जो 'संकेत' कहलाता है।
इस स्थान के विषय में मान्यता है कि यहीं पर पहली पर भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का लौकिक मिलन हुआ था। हर साल राधाष्टमी यानी भाद्र शुक्ल अष्टमी से चतुर्दशी तिथि तक यहां मेला लगता है और राधा कृष्ण के प्रेम को याद कर भक्तगण आनंदित होते हैं।
इस स्थान का नाम संकेत क्यों हुआ इस विषय में कथा है जब श्री कृष्ण और राधा के पृथ्वी पर प्रकट होने का समय आया तब एक स्थान निश्चित हुआ जहां दोनों का मिलना तय हुआ। मिलन का स्थान संकेतिक था इसलिए यह संकेत कहलाया।
शुक्रवार, 30 जून 2017
युग : सतयुग और त्रेतायुग एवं भगवान विष्णु के अवतार
ॐ गं गणपतये नमः
युग : सतयुग और त्रेतायुग एवं भगवान विष्णु के अवतार
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! सतयुग, द्वापरयुग, कलयुग हर युग में कोई न कोई भगवान जन्म जरूर लेते है। आज आप को युगों से अवगत कराते है। युग चार प्रकार के है :
पहला युग सतयुग
सतयुग में भगवान विष्णु के पहले चार अवतार क्रमशः मत्स्य, कच्छप, वाराह और नृसिंह थे। जैसे हर शरीर का अंत होता है ठीक वैसे ही एक समय का अंत भी आता ही है। ऐसा माना जाता है कि सतयुग सबसे लम्बा 1,728,000 साल का होता है, जिसमे एक सामान्य व्यक्ति 1 लाख साल तक जी सकता है जिनका कद 32 फुट लम्बा हुआ करता था।इस युग में इंसान अपनी इच्छा अनुसार मर सकता था।
सब लोग सिर्फ अच्छे कामो में रत रहते थे।
नृत्य की उस समय कोई जगह नहीं थी क्योंकि सब लोग प्रसन्न रहते थे. न कोई बीमार पड़ता था और ना ही कोई गरीब, अमीर था सब सामान थे और सिर्फ भगवान की भक्ति में लगे रहते थे.
इस युग में भगवान ने चार अवतार लिए थे, जिनके नाम थे वराह, नरसिम्हा कुर्मा और मत्स्य, सतयुग में सिर्फ एक ही धर्म था जो मनु शास्त्र के रूप में सब लोग निर्वहन करते थे. सबके के पास पहले से वृहद ज्ञान और शक्तिया होती थी।
नृत्य की उस समय कोई जगह नहीं थी क्योंकि सब लोग प्रसन्न रहते थे. न कोई बीमार पड़ता था और ना ही कोई गरीब, अमीर था सब सामान थे और सिर्फ भगवान की भक्ति में लगे रहते थे.
इस युग में भगवान ने चार अवतार लिए थे, जिनके नाम थे वराह, नरसिम्हा कुर्मा और मत्स्य, सतयुग में सिर्फ एक ही धर्म था जो मनु शास्त्र के रूप में सब लोग निर्वहन करते थे. सबके के पास पहले से वृहद ज्ञान और शक्तिया होती थी।
दूसरा युग त्रेतायुग
त्रेतायुग दूसरा युग था जिसमें अधर्म का नाश करने के लिए भगवान विष्णु तीन अवतार लिए थे, जो क्रमशः वामन अवतार, परशुराम अवतार और श्रीराम अवतार के नाम से हमारे हिंदू धर्म ग्रंथों में उल्लेखित हैं।
भगवान वामन श्री हरि के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप और पांचवें अवतार के रूप में अवतार लिया गया था। उनके पिता वामन ऋषि और माता अदिति थीं। वह बौने ब्राह्मण के रूप में जन्मे थे। वामन भगवान को दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि वह इंद्र के छोटे भाई थे।
भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने इंद्र का देवलोक में पुनः अधिकार स्थापित करने के लिए यह अवतार लिया। दरअसल देवलोक पर असुर राजा बली ने विजयश्री हासिल कर इसे अपने अधिकार में ले लिया था। राजा बली विरोचन के पुत्र और प्रह्लाद के पौत्र थे।
उन्होने अपने तप और पराक्रम के बल पर देवलोक पर विजयश्री हासिल की थी। राजा बलि महादानी राजा थे, उनके दर से कोई खाली हाथ नहीं लौटता था। यह बात जब वामन भगवान को पता चली तो वह एक बौने ब्राह्मण के वेष में बली के पास गये और उनसे अपने रहने के लिए तीन पग के बराबर भूमि देने का आग्रह किया। उनके हाथ में एक लकड़ी का छाता था। गुरु शुक्राचार्य के चेताने के बावजूद बली ने वामन को वचन दे डाला। इस तरह भगवान ने दो पग में धरती, आकाश नाम लिया, चौथा पग उन्होंने राजा बलि के सिर पर रखा था। जिसके बाद से राजा बलि को मोक्ष प्राप्त हुआ।
परशुराम अवतार: भगवान विष्ण के छठवें अवतार के रूप में राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र के रूप में जन्में थे। इस अवतार में वह भगवान शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु(फरसा) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे।
त्रेतायुग में भगवान राम ने रावण का वध करने लिए जन्म लिया था, क्योंकि जब-जब इस धरती पर पाप बढ़ा है तब -तब भगवान ने इस धरती को अपना विराट रूप दिखाया है। हिन्दू धर्म में श्रीराम, श्रीविष्णु के 10 अवतारों में, सातवें अवतार हैं। श्रीराम द्वारा सरयु में समाधि लेने से पहले माता सीता धरती माता में समा गईं थी और इसके बाद ही उन्होंने पवित्र नदी सरयु में समाधि ली। चारों युग में हनुमान जी एक मात्र ऐसे भगवान हैं जो अमर है द्वापर युग में भी हनुमान जी ने भीम को चारों युग के बारे बताया था, किस युग में क्या होता ये भी बताया था। आप पता है मित्रों ! त्रेतायुग 4 ,32 ,000 वर्षों का होता है, जिसमे एक सामान्य इंसान 10 ,000 साल तक जी सकता था।
गुरुवार, 29 जून 2017
पुराणों में भगवन्नाम -महिमा
ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आप ने १८ पुराणों के बारे में पढ़ा। आज आप को पुराणों के माध्यम से भगवान नाम की महिमा के विषय में बताऊगा। पुराणों में महत्व पूर्ण क्या है। ये मेरी छोटी से कोशिश आप के सामने है। चलिए मित्रो आज भगवन्नाम-महिमा का महत्व समझते है।
पुराणों में भगवन्नाम -महिमा
नारायणो नाम नरो नराणां प्रसिद्धचौरः कथितः पृथिव्याम्।
अनेकजन्मार्जितपापसंचयं हरत्यशेषं श्रुतमात्र एव।।
'इस पृथ्वी पर 'नारायण' नामक एक नर (व्यक्ति) प्रसिद्ध चोर बताया गया है, जिसका नाम और यश कानों में प्रवेश करते ही मनुष्यों की अनेक जन्मों की कमाई हुई समस्त पाप राशि को हर लेता है।'
(वामन पुराण)
न नामसदृशं ज्ञानं न नामसदृशं व्रतम्।
न नामसदृशं ध्यानं न नामसदृशं फलम्।।
न नामसदृशस्त्यागो न नामसदृशः शमः।
न नामसदृशं पुण्यं न नामसदृशी गतिः।।
नामैव परमा मुक्तिर्नामैव परमा गतिः।
नामैव परमा शान्तिर्नामैव परमा स्थितिः।।
नामैव परमा भक्तिर्नामैव परमा मतिः।
नामैव परमा प्रीतिर्नामैव परमा स्मृतिः।।
'नाम के समान न ज्ञान है, न व्रत है, न ध्यान है, न फल है, न दान है, न शम है, न पुण्य है और न कोई आश्रय है। नाम ही परम मुक्ति है, नाम ही परम गति है, नाम ही परम शांति है, नाम ही परम निष्ठा है, नाम ही परम भक्ति है, नाम ही परम बुद्धि है, नाम ही परम प्रीति है, नाम ही परम स्मृति है।'
(आदि पुराण)
नामप्रमियों का संग, प्रतिदिन नाम-जप का कुछ नियम, भोगों के प्रति वैराग्य की भावना और संतो के जीवन-चरित्र का अध्ययन – ये नाम-साधना मे बड़े सहायक होते हैं। इन चारों की सहायता से नाम-साधना में बड़े सहायक होते हैं। इन चारों की सहायता से नाम साधना में सभी को लगना चाहिए। भगवन्नाम से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। नाम से असम्भव भी सम्भव हो सकता है और इसकी साधना में किसी के लिए कोई रूकावट नहीं है। उच्च वर्ण का हो या नीच का, पंडित हो या मूर्ख, सभी इसके अधिकारी हैं। ऊँचा वही है, बड़ा वही है जो भगवन्नामपरायण है, जिसके मुख और मन से निरन्तर विशुद्ध प्रेमपूर्वक श्री भगवन्नाम की ध्वनि निकलती है। संत तुलसीदास जी कहते हैं-
धन्य धन्य माता पिता, धन्य पुत्रवर सोइ।
तुलसी जो रामहि भजें, जैसेहु कैसेहु होइ।।
तुलसी जाके बदन ते, धोखेहु निकसत राम।
ताके पग की पगतरी, मोरे तनु को चाम।।
तुलसी भक्त श्वपच भलौ, भजै रैन दिन राम।
ऊँचो कुल केहि काम को, जहाँ न हरि को नाम।।
अति ऊँचे भूधरन पर, भजगन के अस्थान।
तुलसी अति नीचे सुखद, ऊख अन्न अरु पान।।
जिस प्रकार अग्नि में दाहकशक्ति स्वाभाविक है, उसी प्रकार भगवन्नाम में पाप को, विषय-प्रपंचमय जगत के मोह को जला डालने की शक्ति स्वाभाविक है।
भगवन्नाम-जप में भाव हो तो बहुत अच्छा परंतु हमें भाव की ओर दृष्टि नहीं डालनी है। भाव न हों, तब भी नाम-जप तो करना ही है।
नाम भगवत्स्वरूप ही है। नाम अपनी शक्ति से, अपने गुण से सारा काम कर देगा। विशेषकर कलियुग में को भगवन्नाम जैसा और कोई साधन ही नहीं है। वैसे तो मनोनिग्रह बड़ा कठिन है, चित्त की शांति के लिए प्रयास करना बड़ा ही कठिन है, पर भगवन्नाम तो इसके लिए भी सहज साधन है।
आलस्य और तर्क – ये दोनों नाम-जप में बाधक हैं।
प्राय: आलस्य के कारण ही कह बैठते हो कि नाम-जप नहीं होता।
नाम लेने का अभ्यास बना लो, आदत डालो।
'रोटी-रोटी करने से ही पेट थोड़े ही भरता है?' इस प्रकार के तर्क भ्रांति लाते हैं, पर विश्वास करो, भगवन्नाम 'रोटी' की तरह जड़ शब्द नहीं है। यह शब्द ही ब्रह्म है। 'नाम' और नामी में कोई अन्तर ही नहीं है।
'नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं' इस पर श्रद्धा करो। इस विश्वास को दृढ़ करो। कंजूस की भाँति नाम-धन को सँभालो।
नाम के बल से बिना परिश्रम ही भवसागर से तर जाओगे और भगवान के प्रेम को भी प्राप्त कर लोगे। इसलिए निरन्तर भगवान का नाम लो, कीर्तन करो।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्।।
'राजन् ! दोषों के भंडार – कलियुग में यही एक महान गुण है कि इस समय श्रीकृष्ण का कीर्तनमात्र करने से मनुष्य की सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और वह परम पद को प्राप्त हो जाता है।'
(श्रीमद् भागवत)
यदभ्यर्च्य हरिं भक्त्या कृते क्रतुशतैरपि।
फलं प्राप्नोत्यविकलं कलौ गोविन्दकीर्तनात्।।
'भक्तिभाव से सैंकड़ों यज्ञों द्वारा भी श्रीहरि की आराधना करके मनुष्य जिस फल को पाता है, वह सारा-का-सारा कलियुग में भगवान गोविन्द का कीर्तनमात्र करके प्राप्त कर लेता है।'
(श्रीविष्णुरहस्य)
ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम्।।
'सत्ययुग में भगवान का ध्यान, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन और द्वापर में उनका पूजन करके मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे वह कलियुग में केशव का कीर्तनमात्र करके प्राप्त कर लेता है।
(विष्णु पुराण)
संत कबीरदास जी ने कहा हैः
सुमिरन की सुधि यों करो, जैसे कामी काम।
एक पलक न बीसरै, निस दिन आठों याम।।
सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यों सुरभी सुत माँहि।
कह कबीर चारो चरत, बिसरत कबहूँ नाँहि।।
सुमिरन की सुधि यों करो, जैसे दाम कंगाल।
कह कबीर बिसरे नहीं, पल-पल लेत सम्हाल।।
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे नाद कुरंग।
कह कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजै तेहि संग।।
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
प्रान तजै छिन एक में, जरत न मोड़े अंग।।
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।
कबीर बिसारे आपको, होय जाये तेहि रंग।।
सुमिरनसों मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्रान तजै पल बीछड़े, संत कबीर कह दीन।।
'सुमिरन इस तरह करो जैसे कामी आठ पहर में एक क्षण के लिए भी स्त्री को नहीं भूलता, जैसे गौ वन में घास चरती हुई भी बछड़े को सदा याद रखती है, जैसे कंगाल अपने पैसे का पल-पल में सम्हाल करता है, जैसे हरिण प्राण दे देता है, परंतु वीणा के स्वर को नहीं भूलना चाहता, जैसे बिना संकोच के पतंग दीपशिखा में जल मरता है, परंतु उसके रूप को भूलता नहीं, जैसे कीड़ा अपने-आपको भुलाकर भ्रमर के स्मरण में उसी के रंग का बन जाता है और जैसे मछली जल से बिछुड़ने पर प्राणत्याग कर देती है, परंतु उसे भूलती नहीं।'
स्मरण का यह स्वरूप है। इस प्रकार जिनका मन उस परमात्मा के नाम-चिन्तन में रम जाता है, वे तृप्त और पूर्णकाम हो जाते हैं।कलियुग में भगवान की प्राप्ति का सबसे सरल किंतु प्रबल साधन उनका नाम-जप ही बताया गया है।
श्रीमद्भागवत का कथन है-" यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है तथापि इसमें एक बहुत बडा सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान के ध्यान (तप) द्वारा,
त्रेतायुग में यज्ञ-अनुष्ठान के द्वारा,
द्वापरयुगमें पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था,
कलियुग में वह पुण्यफल श्री हरिके नाम-संकीर्तन(हरे कृष्ण महामंत्र) मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।
कृष्णयजुर्वेदीय कलिसंतरणोपनिषद् मे लिखा है कि द्वापरयुगके अंत में जब देवर्षिनारद ने ब्रह्माजीसे कलियुग में कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा, तब सृष्टिकर्ता ने कहा-
आदिपुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है। नारदजीके द्वारा उस नाम-मंत्र को पूछने पर हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीने बताया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
यह महामंत्र कलि के पापों का नाश करने वाला है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य उपाय सारे वेदों में भी देखने को नहीं आता।
मंगलवार, 27 जून 2017
जीवन में तुरंत शांति पाने के लिए पढ़े श्रीरामसुखदासजी के विचार (भाग-तीसरा)
ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! श्रीरामसुखदासजी के विचार जो तुरंत शांति प्रदान करते है, हमारे अंदर जब नकारात्मक विचार आते है और दुःख का समय हो तो ये विचार हमारे जीवन में शांति के साथ आध्यात्मिकता की ओर भी बढ़ाते है कल कुछ विचार पढ़े आज आगे बढ़ते है पढ़ते है अनमोल विचार :
🚩एकांत में रहते हुए,
🚩 गंगा स्नान करते हुए,
🚩 भगवान का पूजन करते हुए,
🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए
🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l
💠
जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती
💠
ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l
गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है
जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा।
🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है।
🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔जहाँ राग-द्वेष,
हर्ष-शोक,
अच्छा-मंदा,
अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है।
🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🚩 गंगा स्नान करते हुए,
🚩 भगवान का पूजन करते हुए,
🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए
🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l
💠
जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती
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ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l
गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है
जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा।
🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है।
🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔जहाँ राग-द्वेष,
हर्ष-शोक,
अच्छा-मंदा,
अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है।
🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
- महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।
- पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।
- धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
- सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
- महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।

- मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
- आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
- झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।
- संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
- बार बार मन से पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित बात है ।
- जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
- विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में कोई उत्तम वस्तु नहीं ।
- सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।
- ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा ।
- जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।
- धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।
- अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।
- भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये करने से ही कल्याण होता है ।
- भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई भी साधन नहीं है ।
- ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास और जप करना चाहिये ।
- सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये ।
- भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये ।
- एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है ।
- सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना चाहिये ।
- भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।
- भगवान का नाम जपते समय संसार के बारे में नही सोचना चाहिए और संसार के काम करते समय भी भगवान को नही भूलना चाहिए l
- जिसमे बचपन से ही या जवानी में भक्ति नही की वो बुढापे में क्या भक्ति करेगा ?
- जैसे व्यापर वो बढिया होता है जिसमे अधिक लाभ हो उसी प्रकार साधना वही बढिया होती है जिसमे अधिक मन भगवान में लगे l
- जैसे जैसे समाज में लोग केवल संसार को ही महत्व देना आरम्भ करते हैं और धर्म की उपेक्षा (ignore) करते हैं वैसे ही समाज में अशांति, अपराध, पाप बढ़ते हैं या यूं कहें कि धर्म की उपेक्षा करेंगे तो अधर्म बढ़ता है l
- दुःख आता ही इस लिए है कि सुख की इच्छा छूट जाए l
- भक्त को सदैव दूसरों कि सेवा करने का लालच होना चाहिए, दूसरों को सुख देकर भक्त स्वयं वहां पहुँच जायेगा जहाँ उसको कभी कोई दुःख नही होगा l
- सुख पाना चाहते हो तो पहले दुसरों को सुख दो, जैसे बीज बोओगे, वैसी ही फसल काटोगे l
- जो दूसरों को हानि पहुंचाता है वो भी वास्तव में अपनी ही हानि कर रहा है और जो दूसरों का भला कर रहा है वो वास्तव में अपना ही भला कर रहा है l
- “दूसरे सुखी हो” - जब व्यक्ति ऐसा भाव रखेगा तो सब सुखी हो जायेंगे और स्वयं भी सुखी हो जायेगा परन्तु “मैं सुखी हो जाऊं” – जब व्यक्ति यह भाव रखेगा तो सब दुखी हो जायेंगे और व्यक्ति स्वयं भी दुखी हो जाएगा l
- श्रेष्ठ भक्त वही है जो दूसरों की भलाई में लगा हुआ है l
- जो सबका भला चाहता है, वो भगवान के हृदय में स्थान पाता है l
- जो दूसरों का भला कर रहा है, वह कहीं भी रहे भगवान को पा लेगा l
- जैसे कोई कम्पनी में अच्छा काम करने से कम्पनी का स्वामी प्रसन्न होता है, ऐसे ही संसार की सेवा करने से संसार के स्वामी (भगवान) प्रसन्न हो जाते हैं
- संसार में दूसरों के लिए जैसा करोगे अपने लिए भी वैसा हो जायेगा, इसलिए सदैव दूसरों का भला करो l
- जब कभी सेवा करने का अवसर मिले तो प्रसन्न होना चाहिए कि भाग्य खुल गया l
- धार्मिक पुस्तकें, अच्छे विचारों और सत्संग से बुरे से बुरा संभाव भी अच्छा हो जाता है l
- आज के समय में तो मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर रहा है, क्यूंकि पशु भी दूसरों का के अधिकार की वस्तुएं नही लेते, मनुष्य तो दूसरों का अधिकार मार रहा है l
- हमारी कमाई में किसी दूसरे के अधिकार का एक रूपये न हो इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए l
- कुछ करना है तो दूसरों की सेवा करो-कुछ जानना चाहते हो तो अपने आप को जानी -मानना चाहते हो तो भगवान् को मानो- तीनो का परिणाम एक ही होगा
- हमे जिस व्यक्ति या वस्तु से मोह (जुड़ाव) हो, उसमे भी भगवान को ही देखना चाहिए l

- प्रत्येक समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हम किसी की हानि तो नही कर रहे हैं ?
- जैसे बच्चा प्रत्येक स्थिति में माँ को ही पुकारता है इसी प्रकार भक्त को भी प्रत्येक स्थिति में भगवान को ही पुकारना चाहिए l
- जिस कार्य को बाद में सीधा नही किया जा सके, उस उल्टेकार्य को कभी नही करना चाहिए l
- चरित्र की सुन्दरता ही वास्तविक सुन्दरता है l
- कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान की दी हुई वस्तुएं अच्छी लगती है परन्तु भगवान नही अच्छे लगते l
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