ॐ गं गणपतये नमः

वेद: संख्या और महत्व
वेद: संख्या और महत्व
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आज आप से वेदों के विषय में बात करते है ये कितने है और इन का क्या महत्व है। चलिए पहले इस की संख्या पर प्रकाश डाले।
वेदों की संख्या:
सभी जानते हैं की वेदों की संख्या चार है, लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं की शुरुआत में वेद केवल एक ही था, अध्ययन की सुविधा की द्रष्टि से उसे चार भागों में बाँट दिया गया। एक और मत इस संबंध में प्रचलित है जिसके अनुसार, अग्नि, वायु और सूर्य ने तपस्या करी और ऋग्वेद, आयुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया। ऋग्वेद, आयुर्वेद और सामवेद को क्रमशः अग्नि, वायु और सूर्य से जोड़ा गया है। इसको आगे स्पष्ट करते हुए बताया गया है की अग्नि से अंधकार दूर होता है और प्रकाश मिलता है इसी प्रकार वेदों से अज्ञान का अंधेरा छंट कर ज्ञान का प्रकाश होता है। वायु का काम चलना है जिसका वेदों में अर्थ कर्म करने से जोड़ा गया है। इसी प्रकार सूर्य अपने तेज और प्रताप के कारण पूजनीय है यही वेदों में भी स्पष्ट किया गया है।
वेदों के प्रकार
वेद चार प्रकार के हैं और इनकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
1. ऋग्वेद:
वेदों में सबसे पहला वेद ऋग्वेद कहलाता है। इस वेद में ज्ञान प्राप्ति के लिए लगभग 10 हज़ार मंत्रों को शामिल किया गया है जिनमें पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र आदि लिखे गए हैं। ये सभी मंत्र कविता और छंद के रूप में लिखे गए हैं। इसे विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना गया है।
2. यजुर्वेद
इस वेद में समर्पण की प्रक्रिया के लिए लगभग 40 अध्यायों में 3750 गद्यात्मक मंत्र हैं। ये मंत्र यज्ञ की विधियाँ और यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्व ज्ञान का वर्णन भी इस वेद में है। इस वेद की दो शाखाएँ -शुक्ल और कृष्ण हैं।
3. सामवेद
साम का अर्थ है रूपान्तरण, संगीत, सौम्यता, और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें संगीत की उपासना है जिसमें 1875 मंत्र हैं।
4. अथर्ववेद:
वेदों की श्रृंखला में सबसे आखिरी वेद है । इसमें गुण, धर्म, आरोग्य के साथ यज्ञ के लिए कवितामय मंत्र जिनकी संख्या 7260 हैं जो लगभग 20 अध्यायों में हैं , शामिल हैं। इसमें रहस्यमय विध्याओं के जैसे जादू, चमत्कार आदि के भी मंत्र हैं।
अब बात करते है वेदों के महत्व की : वेद में कौन-कौन से विज्ञान भरे हुए हैं?
वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए सनातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। वेद की महिमा का पूर्णरूपेण प्रतिपादन करना अथवा उसे पूर्णतया समझना अत्यन्त कठिन है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन (नित्य) वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है, इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने के लिए परम साधन मानता हूँ।
(मनु. १२.९४.९७.९९)
मनुजी ने तो यहाँ तक लिखा है-तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है।
(मनु0 २.१६६)
‘जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक (दुःखविशेष) को प्राप्त होता है।’
(मनु0 ६.३७)
‘क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके, अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।’
(मनु0 ३.२)
आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्य, अनुचित (unfit) हो जाएँ। महर्षि मनु ईश्वर को न माननेवाले को नास्तिक नहीं कहते, अपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं।….
वैशेषिकदर्शन में कहा है-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।।
-वै0 १0-१.३
अर्थात् ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं।
एक अन्य स्थान पर वेद की महिमा का वर्णन इस प्रकार है।
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।
अर्थात् वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है।
-वै0 ६.१.१
उसमें सृष्टिक्रम-विरूद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं, अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है।
सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है -
वेद पौरूषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरूषेयत्व सिद्ध ही है।
-सांख्य ५.४६
वेद अपौरूषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
-सांख्य ५.५९
….ईश्वर शास्त्र = वेद का कारण है। अर्थात् वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है।
-वेदान्त १.१.३
इस सूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य पठनीय है। हम यहाँ उसका हिन्दी रूपान्तर दे रहे हैं-
‘ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनानेवाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है।’ ….
मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है-
चोदनालक्षणोर्थो धर्मः।।
अर्थात् जिसके लिए वेद की आज्ञा हो, वह धर्म और जो वेदविरूद्ध हो वह अधर्म है।
-मीमांसा १.१.३
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्।।
अर्थात् शब्द नित्य है, नाश रहित है, क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है, वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।
-मीमांसा १.३.१८ब्रह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्त्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है-
या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी।….
-वा0 रा0 अयो0 ५४.२४.२५
जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था- हे वत्स ! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पतिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में वेद के गौरव-विषयक विचारों का अवलोकन कीजिए। वेद की गौरव-गरिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।’
-महा. शान्ति २३२.२४
अर्थ सहित वेदाध्ययन के महत्तव पर बल देते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘जो वेद और शास्त्रों को कण्ठस्थ करने में तत्पर है, परन्तु उनके अर्थ से अनभिज्ञ है, उसका कण्ठस्थ करना व्यर्थ ही है। जो ग्रन्थ के तात्पर्य को नहीं समझता, वह ग्रन्थ को रटकर मानों उसका बोझ ही ढोता है, परन्तु जो अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़ता है, उसका पढ़ना ही सार्थक है।’
-महा. शान्ति ३0५.१३.१४
इसी तथ्य को महर्षि यास्क ने इस प्रकार प्रकट किया है- स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योडर्थम्।
योडर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमष्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।
अर्थात् जो मनुष्य वेद पढ़कर उसके अर्थों को नहीं जानता, वह भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु जो अर्थ को जाननेवाला है, वह उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दुःखरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है।
-निरूक्त १.१८
पाठकगण! इस संदर्भ का यह अर्थ मत लगाइए कि हमें अर्थ नहीं आते, अतः पढ़ने से छुट्टी मिल गई। ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परमधर्म है।’ प्रतिदिन वेदपाठ कीजिए। न पढ़ने से पढ़ना उत्तम है लीजिए इस विषय में महर्षि दयानन्द के विचार पढ़िए-
‘‘अर्थज्ञानसहित पढ़ने से ही परमोत्तम फल की प्राप्ति होती है, परन्तु न पढ़नेवाले से तो पाठमात्र-कर्त्ता भी उत्तम होता है। जो शब्दार्थ के विज्ञानसहित अध्ययन करता है वह उत्तमतर है, जो वेदों का अध्ययन कर उनके अर्थों को जानकर शुभ गुणों का ग्रहण और उत्तम कर्मों का आचरण करते हुए सर्वोपकारी होता है वह उत्तमोत्तम है।’’
-ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः
पाठकों ने मन्वादिस्मृतियों में, ब्राह्मणग्रन्थों एवं इतिहासग्रन्थों में वेद के गौरव-विषयक विचार पढ़े। अब हम पुराणों के कुछ स्थल प्रस्तुत करना चाहते हैं। पुराण भी वेद की महिमा से भरे हुए हैं। श्रीमद्भागवत का कथन है-
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात्स्वयंभूरिति शुश्रुम।।
अर्थात् जो वेद में कहा है वही धर्म है और जो वेद के विरूद्ध है वही अधर्म है। वेद साक्षात् नारायणस्वरूप हैं, क्योंकि वे (भगवान् के श्वासमात्र) से स्वयं प्रकट हुए हैं, ऐसा हमने सुना है।
-भा0पु0 ६.१.४0
अब कूर्मपुराण का एक वचन देखिए-
एकतस्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः।
एकत्र परमं वेदमेतदेवातिरिच्यते।।
अर्थात् एक ओर इतिहाससहित सम्पूर्ण पुराण और एक ओर परम वेद-इनमें वेद ही परम हैं, महान् हैं, श्रेष्ठ हैं।
-कूर्म0 उ0 ४६.१२९
देवीभागवत पुराण में वेद का महत्त्व इन शब्दों में प्रकट किया गया है-
सर्वथा वेद एवासौ धर्ममार्गप्रमाणकः….।
अर्थात् धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है। जो कुछ वेद अविरूद्ध एवं वेदानुकूल है वही प्रामाणिक है, अन्य नहीं। जो वेद को छोड़कर दूसरे ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता है, उसके लिए यमलोक में कुण्ड तैयार हैं, अर्थात् वह यमलोक में जलकुण्डों में गिरता है।
-देवी भाग. ११.१.२६.२७
वेद की महिमा महान् है। मानव बुद्धि और उसका सीमित ज्ञान वेद की महिमा का बखान करने में असमर्थ हैं, अतः अन्त में गरूड़पुराण की सम्मति देकर हम इस प्रसगं को समाप्त करना चाहते हैं।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केषवात् परः।।
अर्थात् मैं दुहाई देकर और भुजा उठाकर सत्य-सत्य कहता हूँ कि वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है और केशव = परमात्मा से बढ़कर कोई देव नहीं है।
-गरुड़० बर्० का० १०१ॱ५५
उपनिषद:
इसमें ईश्वर, आत्मा और परब्रह्म के स्वभाव और आपसी संबद्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन किया गया है ।कुछ विद्वानों के अनुसार, ब्राह्मण, आरण्यक, संहिता और उपनिषद के योग को भी समग्र वेद कहा जाता है। वेदों का अध्ययन इतना विशाल और गहरा है जिसका आदि और अंत समझना बहुत कठिन है। शोध रिपोर्टों के अनुसार वेदों का सार उपनिषद में समाया है और उपनिषद का सार भागवत गीता को माना गया है। इस क्रम में वेद, उपनिषद और भागवत गीता है वास्तविक हिन्दू धर्म ग्रंथ हैं, अन्य और कोई नहीं हैं। वेद स्म्र्तियोन में वेद वाक्यों को विस्तार से समझाया गया है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत को इतिहास और पुराणों की प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ माना गया है। इसलिए हिन्दू मनीषियों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया गया है जिसका मुख्य कारण इन ग्रन्थों में वेदों के सारे ज्ञान को संक्षेप और सरल शब्दों में बताया गया है।
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