ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।
1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7- यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार
पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि, दत्तात्रेय और यज्ञ अवतार के विषय में पढ़ा। अब आगे
भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में आठवांं अवतार लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार महाराज नाभि की कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा।
वरदान स्वरूप कुछ समय बाद भगवान विष्णु महाराज नाभि के यहां पुत्र रूप में जन्मे। पुत्र के अत्यंत सुंदर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेल, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा।
समय आने पर ऋषभ देव का विवाह इंद्र की सुपुत्री जयंती से हुआ और इनके सौ पुत्र हुए, जिनमे सबसे बड़े भरत जी थे। ये सभी पुत्र स्वयं श्री नारायण के पुत्र थे और बहुत संत स्वभाव वाले थे। एक दिन ऋषभ देव जी ने अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया।
ऋषभ जी बोले - हे पुत्रों, मानव देह हमें पशुओं की ही तरह संसार का सुख भोगने भर के लिए नहीं मिली है, बल्कि उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिली है । मन की शुद्धि आवश्यक है। दो महाद्वार हैं- एक मोक्ष का और दूसरा संसार का । लोकसेवा का धर्म (कर्तव्य), साक्षी भाव से अलिप्त होकर करना, मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है। कर्मों में संग होना , और इन्द्रियविषयों में लिप्त होना संसार में डुबा देता है।
संसार को भोगने की इच्छा ही जीवात्मा को परमात्मा से दूर देह के संग लाती है। फिर देह और मन का संग होने से मनुष्य अपने ही कर्म और मोहबंधनों में बांध जाता है और "आत्मन" कर्मों के जाल में फंसता चला जाता है और जन्म मरण के चक्र में बार बार घूमता रहता है। अपने मोह में वह अपनी बुद्धि को मन और इन्द्रियों के विषयों के जाल में बाँध देता है और कष्ट भोगता रहता है।
"मैं (अहंकार)" और "मेरा(ममकार)" - यह मनुष्य के प्रमुख शत्रु हैं।
यह "अहंकार" और "ममकार" मनुष्य को जकड़ लेते हैं।
हे प्रिय पुत्रों - अपने बड़े भ्राता भारत को अपना पिता समान मानना और उनकी आज्ञा मानना। इस संसार में वैसे रहना जैसे मैंने अभी तुम्हे समझाया है। भक्ति द्वारा मोह बंधन को काटते रहना, और स्वयं को इस जन्म मरण के चक्र से निकाल लेना।
तब ऋषभ देव जी ने भरत को राजा बनाया और राज्य और परिवार से मुक्त ऋषभ देव जी वन को चले गए। वे अवधूत हो गए और संसार त्यागने के समय के इंतज़ार में भ्रमण करते रहे। समय आने पर वे कूर्ग के वनों में थे - जहां भीषण आग लगी जिसमे वे स्व धाम को लौट गए।
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