रविवार, 28 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार : यज्ञ अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार : यज्ञ अवतार  


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि और दत्तात्रेय अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे 



७. यज्ञ अवतार -भगवान विष्णु के सातवें अवतार का नाम यज्ञ है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई। इन्हीं आकूति के यहां भगवान विष्णु यज्ञ नाम से अवतरित हुए। भगवान यज्ञ के उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाये। श्रीमद्धभगवत अनुसार विस्तार से : 

 ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ।।११।।


सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की यज्ञ या यज्ञेश्वर {यज्ञ के स्वामी /ईश्वर } भगवान् नारायण का अवतार माने जाते हैं Iभागवत पुराण ,देवी भागवत और गरुड़ पुराण के अनुसार यज्ञ को आदि -नारायण का अवतार माना गया है I यज्ञ प्रजापति रुचि और आकूति के पुत्र हैं आकूति स्वयंभुव मनु की पुत्री थी I स्वयंभुव मन्वंतर के समय में कोई योग्य इंद्र नही था ,इसलिए भगवान् नारायण यज्ञ के रूप में अवतारित होकर स्वर्ग के राजा बने I नारायण साक्षात यज्ञ ही हैं Iभगवत गीता भी यज्ञ को नारायण से जोडती है I विष्णु सहस्रनाम में भी भगवान् के हज़ार नामों में एक नाम यज्ञ भी है। 



प्रियव्रत के प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र से नाभि का जन्म हुआ। नाभि आप ही की तुष्टि के लिये यज्ञ कर्म कर रहे थे। उसी यज्ञ में उन्हें सभी अभीष्टों के दाता आपके दर्शन हुए। मुनीश्वरों ने उस यज्ञ में प्रकट हुए आपकी स्तुति की और राजा नाभि के लिये आपके समान ही पुत्र की याचना की। हे विश्वमूर्ति! तब आपने कहा कि ' मै स्वयं ही जन्म लूंगा'। इस प्रकार कह कर उस यज्ञाग्नि में आप अन्तर्धान हो गये। नाभि की प्रिय पत्नी मेरुदेवी से फिर अंश रूप से ऋषभ नाम वाले आप प्रकट हुए। आपके असामान्य अलौकिक गुणों के प्रभाव से सभी आनन्द के भर गये। 



आप स्वयं ही त्रिलोक का भार वहन करने वाले हैं। आपके ऊपर राज्य का भार डाल कर नाभि, मेरुदेवी के संग तपोवन को चले गये। वहां आपकी ही सेवा अर्चना करते हुए वे परम आनन्द दायक आपके ही धाम वैकुण्ठ को प्राप्त हो गये। आपके उत्कर्ष से ईर्ष्या के वशीभूत हुए इन्द्र ने इस अजनाभ वर्ष के ऊपर वर्षा नहीं की। तब आप अपनी योग शक्ति के व्यवधान से अपने अजनाभवर्ष पर सुन्दर वृष्टि लाये। विजित इन्द्र ने तब आपको सुन्दरी जयन्ती प्रदान की। स्वयं अपनी आत्मा में रमण करने के आशय वाले आपने उससे विवाह कर के सौ पुत्रों को जन्म दिया जिनमें से राजा भरत सब से बडे थे। उन पुत्रों में से नौ तो योगिराज हो गये और दूसरे नौ भारत वर्ष के विभिन्न खन्डों पर राज्य करने लगे। बाकी इक्यासी पुत्र अपने तपोबल से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। तब आप (ऋषभ देव) मुनीश्वरों के सम्मुख अपने पुत्रों को विरक्ति भक्ति सहित मुक्ति मार्ग का उपदेश दे कर स्वयं परमहंस वृत्ति को प्राप्त हुए और आपने जड उन्मत्त और पिशाचों के आचरण को अपना लिया। परम आत्मस्वरूप होते हुए भी आप अन्य लोगों को उपदेश देते रहे। सभी से तिरस्कृत होते हुए भी विकारहीन, परमानन्द रस में अभिलीन हुए आप पूरी पृथ्वी पर विचरते रहे। सर्प की वृत्ति और गौ मृग एवं काक की जीवन चर्या को चिर काल तक निभाते हुए आप स्वयं के परम स्वरूप को प्राप्त हो गये। फिर कुटकाचल पर दावाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर को भस्म कर दिया। हे वातनाथ! मेरे तापों को दूर करें। 









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