शनिवार, 29 अप्रैल 2017

अठारहवाँ अध्याय : मोक्षसंन्यासयोग (श्लोक: 1 से 45)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


मोक्षसंन्यासयोग 
अठारहवाँ अध्याय 
जय श्री कृष्ण मित्रों ! दूसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से श्रीमद्धभगवदगीता के उपदेश का आरम्भ हुआ है।  वहां से लेकर ३० वें श्लोक तक भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञानयोग का उपदेश दिया है और बीच में क्षात्र धर्म की द्रष्टि से युद्ध का कर्त्तव्ये बताकर ३९ वें श्लोक से अध्याय पूरा हो तब तक कर्मयोग का उपदेश दिया है।  फिर तीसरे अध्याय से सत्रहवे अध्याय तक किसी जगह पर ज्ञान योग के द्वारा तो किसी जगह कर्मयोग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है।  यह सब सुनकर अर्जुन इस अठारहवे अध्याय में सर्व अध्यायों के उद्देश्य का सार जानने के लिए भगवान के समक्ष संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्तिरहित कर्मयोग का तत्व अलग-अलग से समझने की इच्छा प्रकट करते है। 

अर्जुन उवाच --
ह्रषीकेश ! फ़रमाइये अब ज़रा,
है संन्यास और त्याग में फ़र्क क्या ?
कवी-दस्त ! केशी के कातल मुझे,
असूल उन के क्या हैं बता दीजिये ?। (१)

श्रीभगवानुवाच --
यह कहते हैं दाना कि ख्वाहिश के काम,
उन्हें छोड़ने का है संन्यास नाम। 
मगर त्याग में हो न तर्क-ए अमल,
करें सब अमल छोड़ कर उन के फल। (२)

कई मर्द दाना कहें छोड़ काम,
कि कर्मों में पिन्हाँ ज़रर है मदाम। 
कई यूँ कहें यह सआदत न जाये,
इबादत सख़ावत रियाज़त न जाये। (३)

मगर मुझ से भारत के सरदार सुन,
मेरा कौल मेरे परस्तार सुन। 
कि इस त्याग के भी है इकसाम तीन,
गुणों से हुए इस के भी नाम तीन। (४)

तू यज्ञ और सख़ावत, रियाज़त न छोड़,
ये तीनों हैं ऐन-ए सआदत न छोड़। 
कि यज्ञ और सख़ावत रियाज़त के काम,
करें पाक दाना के दिल को मुदाम। (५)

यही फ़ैसला मेरे नज़दीक है,
यही राय पुख़्ता है और ठीक है। 
कि यज्ञ और सख़ावत रियाज़त भी कर,
तअल्लुक रख उन से न फ़िकर-ए समर। (६)

कि जो काम सर पर तेरे फ़र्ज़ है,
न छोड़ उस को यह फ़र्ज़ इक कर्ज़ है। 
यह तर्क इक फ़रेब-ए जहालत समझ,
यह त्याग इक तमोगुण की सूरत समझ। (७)

वो बुज़दिल जो तकलीफ़ के ख़ौफ़ से,
जो करने का है काम उसे त्याग दे। 
समझ ले रजोगुण वो तर्क-ए अमल,
न हासिल हो इस त्याग से कोई फल। (८)

करे फ़र्ज़ को फ़र्ज़ गर जान कर,
ताअल्लुक़ हो उस से न फ़िकर-ए समर। 
जो असली है अर्जुन यही त्याग है,
कि ऐन-ए सतोगुण यही त्याग है। (९)

हो त्यागी सतोगुण है और होश्यार,
शकूक अपने कर दे वो सब तार-तार। 
जो हो कार-ए नाखुश तो नाखुश न हो,
अगर कार-ए खुश हो ज़रा खुश न हो। (१०)

कि दुनिया में जितने हैं तन के मकीं,
करें तर्क सब काम मुमकिन नहीं। 
है त्यागी वही तर्क-ए बाअमल,
अमल जो करे छोड़ कर उन के फल। (११)

जो त्यागी नहीं जब वो दुनिया से जाये,
तो मर कर वो फल तीन सूरत से पाये। 
बुरे या भले या मुरक़्क़ब समर,
जो तारक हैं बच जाये उन से मगर। (१२)

जबरदस्त अर्जुन समझ मुझ से अब,
कि हर काम के पाँच होंगे सबब। 
हो पाँचो से तकमील हर काम की,
कहे सांख्य का फ़ल्सफ़ा भी यही। (१३)

सबब अव्वली है अमल का मुकाम,
दोम आमल उस का फिर आज़ा तमाम। 
चहारम सबब सही-ओ तदबीर है,
तो पंचम सबब दस्त-ए तकदीर है। (१४)

कोई काम इन्सां यतन से करे,
जबां से कि तन से कि मन से करे। 
रवा काम या ना-रवा काम हो,
इन्ही पाँच से वो सर-अन्जाम हो। (१५)

करीन-ए ख़िरद फिर नहीं उस की बात,
जो समझे है आमल फ़कत उस की ज़ात। 
हक़ीक़त में है वो हक़ीक़त से दूर,
वो मूरख है दानिश में जिस को फ़तूर। (१६)

वो इन्सां जो दिल में न रक्खे ख़ुदी,
नहीं जिस की दानिश में आलूदगी। 
नहीं उस को कर्मों के बन्धन से काम,
वो कातल नहीं गो करे कतल-ए आम। (१७)

अमल के मुहरक हैं मफ़हूम तीन,
वो है आलम-ओ इल्म-ओ मालूम तीन। 
 अजज़ा है जिन पर अमल का मदार,
हैं कारिंदा-ओ कार-ओ आलात-ए कार। (१८)

नज़र आये जिस ज्ञान से बरमला,
हर इक में वही हस्ती-ए लाफ़ना। 
जो कसरत में वाहदत की पहचान है,
तो ऐन-ए सतोगुण यही ज्ञान है। (२०)

नज़र आये कसरत में कसरत अगर,
कि सब हस्तियाँ हैं जुदा सर-बसर। 
जो कसरत में वाहदत से अनजान है,
रजोगुण उस इन्सान का ज्ञान है। (२१)

अगर जुज़्ब में दिल लगाने लगे,
इसी जुज़्ब को कुल बताने लगे। 
तो दानिश है कोता, नज़र तंग है,
तमोगुण इसी ज्ञान का रंग है। (२२)

अमल वो जो लाज़म है और बे-लगाओ,
न रग़बत न नफ़रत का जिस में सुभाओ। 
न हो फल की ख़्वाहिश का जिस में ख़लल,
यही है यही है सतोगुण अमल। (२३)

मगर वो अमल जिस में फल का हो शौक,
रहे लज़्जत-ओ कामरानी का ज़ौक। 
खुदी की नुमाइश हो और दौड़-धूप,
यह समझो अमल का रजोगुण है रूप। (२४)

फ़रेब-ए नज़र से करें काम अगर,
न हो फिकर-ए इमकान-ओ अन्जाम अगर। 
न हो जिस में इज़्ज़ा-ओ नुकसाँ पे ग़ौर,
तमोगुण अमल के यही बस हैं तौर। (२५)

तआल्लुक से बाला खुदी से बरी,
इरादे का मज़बूत दिल का कवी। 
बराबर हैं जिस के लिए हार जीत,
वो आमल सतोगुण की रखता है रीत। (२६)

जो तालिब है फल का हवस-नाक है,
जो लोभी है ज़ालिम है नापाक है। 
ख़ुशी से जो ख़ुशी हो जो ग़म से मलूल,
वो आमल रजोगुण के बरते असूल। (२७)

जो चञ्चल कमीना है जिद्दी कि सुस्त,
नहीं काम करने में चालाक-ओ चुस्त। 
फ़रेबी शरीर और मग़मूम है,
वो आमल तमोगुण से मौसूम हैं। (२८)

इयां अक्ल-ए इन्सां में हो तीन गुण,
बताता हूँ अर्जुन तवज्जो से सुन। 
हैं गुण अज़्म दिल के भी तीनों यही,
बा-तफ़सील सुन मुझ से ले आगही। (२९)

हों तर्क-ओ अमल खैर हो या हो शर,
निजात-ओ असीरी दिलेरी कि डर। 
जो फ़रक-ओ तमीज़ इन में समझायेगी,
 सतोगुण वही अक्ल कहलायेगी। (३०)

बताये न जो साफ़ धर्म और अधर्म,
रवा कौन है ना-रवा कौन कर्म। 
तो अर्जुन नहीं है सतोगुण वो अक्ल,
है अपने गुणों से रजोगुण वो अक्ल। (३१)

घिरी हो अन्धेरे में दानिश अगर,
जो शर को कहे खैर नेकी को शर। 
हर इक बात उलटी हर इक में फ़तूर,
तमोगुण वही अक्ल है बिल्जरूर। (३२)

अगर योग से अज़्म हो उस्तवार,
हवास-ओ दिल-ओ दम पे हो इख्त्यार। 
तो अच्छा वही अज़्म अर्जुन समझ,
वही अज़्म रासख़ सतोगुण समझ। (३३)

मगर अज़्म वो जिस में हो शौक-ए जर,
फ़रायज़ से मकसद हो फ़िक़र-ए समर। 
हवा-ओ हवस से रहे इल्तफात,
रजोगुण हैं अर्जुन वो अज़्म-ओ सबात। (३४)

मगर अज़्म खाली जहालत का बाब,
रहे आदमी जिस से पाबन्द-ए ख्वाब। 
बढ़े खौफ़-ओ रंज-ओ मलाल-ओ ग़रूर,
तमोगुण वही अज़्म है बिलजरूर। (३५)

सुन अब मुझ से भारत के सरदार सुन,
कि सुख के भी इन्सां में है तीन गुण।
है पहले वो सुख जिस से दुःख दूर हो,
बशर मश्क से जिस मसरूर हो। (३६)

वो सुख जिस से हासिल हो दुःख से निजात,
वो पहले है ज़हर  फिर आब-ए हय्यात।
वो सुख आत्मा के मिले ज्ञान से,
सतोगुण वही सुख है पहचान ले। (३७)

जो महसूस से मेल खाकर हवास,
मुसररत की लज़्ज़त से हों रुशनास।
तो पहले वो अमृत है फिर ज़हर है,
रजोगुण मुसररत की इक लहर है। (३८)

हो मदहोश इन्सां जिस आराम में,
जो धोक़ा है आगाज़-ओ अन्जाम में।
बढ़े सुस्ती-ओ ग़फ़लत-ओ ख़्वाब से,
तमोगुण वो सुख है समझ लीजिये। (३९)

जो माया से पैदा हुए तीन गुण,
कोई उन से बाहिर नहीं खूब सुन।
जमीं के जो बाशी हैं, सब उन में क़ैद,
फ़लक पर जो हैं देवता के सैद। (४०)

ब्राह्मण कि हो क्षत्री, शूद्र, वैश्य,
सुन अर्जुन हर इक का निराला यहीं कैश।
फ़रायज़ जुदा सब की ख़िसलत जुदा,
कि फितरत ने की सब की जीनत ज़ुदा। (४१)

सकूँ, जब्त, अफ़्व-ख़ता, रास्ती,
ख़िरद, इल्म, ईमाँ, पाकीज़गी।
रियाज़त, इबादत के पाकीज़ा कर्म,
यह फितरत ने रक्खा ब्राह्मण का धर्म। (४२)

शुजायत, सखावत, सबात और जलाल,
खुदावन्द-गारी-ओ फ़न में कमाल।
कभी छोड़ आना न मैदान-ए जंग,
यही क्षत्री की हैं फ़ितरत के रंग। (४३)

जो है वैश्य तबन्न तिजारत करे,
करे गल्ला-बानी, जरायत करे।
जो है शूद्र सब के वो करता है कार,
है फितरत से ख़लकत का ख़िदमतगुजार। (४४)

अगर अपने अपने करो कारोबार,
तो हो जाओगे कामल अन्जाम-कार।
अगर फ़र्ज की अपने तामील हो,
तो सुन क्यों कर इन्सां की तकमील हो। (४५





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