ॐ श्रीपरमात्मने नमः
कर्मसंन्यासयोग
पाचवाँ अध्याय
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! तीसरे और चौथे अध्याय में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के मुख से कर्म की अनेक प्रकार से प्रशंसा सुनकर और उसके अनुसार बरतने की प्रेरणा और आज्ञा पाकर साथ-साथ में यह भी जाना कि कर्मयोग के द्वारा भगवत्यस्वरूप का तत्व ज्ञान अपने-आप ही हो जाता है। चौथे अध्याय के अंत में भी भगवान् ने उन्हें कर्मयोग प्राप्त करने की आज्ञा दी है लेकिन बीच-बीच में ज्ञानयोग की (कर्मसंन्यास की) प्रशंसा भी सुनी, इससे अर्जुन इन दोनों में अपने लिए कौन-सा साधन श्रेष्ट है उसका निश्चय न कर सका। इसलिए उसका निर्णय अब भगवान् के श्रीमुख से ही हो इस उद्देश्य से अर्जुन उन्हें पूछते है :अब पाचवाँ अध्याय कर्मसंन्यासयोग --
अर्जुन बोले --
कभी कर्मयोग आप अच्छा बताएं,
कभी कर्म संन्यास के गुण सुनाएं।
है भगवान कौन इन में मरगूब-तर,
अमल है कि तर्क-ए अमल खूब-तर ? (१)
श्रीभगवानुवाच -
कही सुन के भगवान ने फिर यह बात,
हैं तर्क अमल दोनों राह-ए निजात।
फ़ज़ीलत में लेकिन है बढ़ कर अमल,
कि तर्क-ए अमल से है बेहतर अमल। (२)
सदा संन्यासी उसे जानिये,
हो नफ़रत किसी से न रग़बत जिसे।
मुक़ैयद न पाबन्द-ए इज़दाद है,
सुन अर्जुन वही मर्द आज़ाद है। (३)
वो हैं तिफ्ल-ए नादाँ जहालत में ग़र्क,
जो संन्यास और योग में पाये फ़र्क।
जो दोनों से इक में भी कामल हुआ,
तो फल उस को दोनों का हासिल हुआ। (४)
तुझे सांख्य से जो मिलेगा मुकाम,
वही योग से पायेगा लाकलाम।
ज़रा देख रखता अगर आँख है,
वही योग है और वही सांख्य है। (५)
राह-ए योग से जो किनारा करे,
तो मुश्किल है संन्यास पाना उसे।
मुनि योग ही में कामल हुआ,
वसाल-ए ख़ुदा उस को हासिल हुआ। (६)
जो सरशार है योग मुस्तकिल,
हवास उस के बस में है वो साफ़ दिल।
जिसे जान अपनी - सी हर जान है,
कहाँ उस को कर्मों से नुकसान है। (७)
हक़ीक़त का है जिस को इल्म-ओ यकीं ,
समझता है मैं कुछ भी करता नहीं।
सुने, देखे, छू ले, कभी सूंघ ले,
वो खाये फिरे सांस ले ऊँघ ले। (८)
वो दे और वो ले और वो बोले कभी,
कभी आँख मूंदे तो खोले कभी।
मगर वो हमेशा यह ले कियास,
कि महसूस की सैर देखें हवास। (९)
रहे बे-तअल्लुक करे जब अमल,
ख़ुदा ही की खातिर करे सब अमल।
खता से हमेशा रहेगा बरी,
कमल के न पत्ते पे ठहरे तरी। (१०)
जो योगी हैं करते हैं निष्काम काम,
नहीं काम में कुछ लगावट का नाम।
लगायें वो तन मन खिरद और हवास,
कि दिल की सफ़ाई हों रुशनास। (११)
जो योगी है सरशार छोड़ेगा फल,
सकून-ए अबद लाये उस के अमल।
जो योगी नहीं वो हवस का फ़कीर,
रहे फल की ख़्वाहिश में हरदम असीर। (१२)
यह नौ दर की इक राजधानी है तन,
रहे चैन से जिस में शाह - ए बदन।
करे खुदा न औरों से ले कोई काम,
करे तर्क - ए आमाल दिल से मुदाम। (१३)
वो मालिक अमल और न आमाल बनाये,
न कर्मों को कर्मों के फल से मिलाये।
ये माया की है कार-फ़रमाइयाँ ,
यह माया ही करती है सब कुछ ऐयाँ। (१४)
न लेगा किसी से भी परमात्मा,
किसी की नकोई किसी की ख़ता।
जहालत है उरफ़ॉ पे छाई हुई,
तो दुनिया है चक्कर में आई हुई। (१५)
मगर जिन को हासल है उरफ़ा का नूर,
करे ज्ञान उन की जहालत को दूर।
कि सूरज हो जब ज्ञान का जूफशॉ,
तो परमात्मा की हो सूरत ऐया। (१६)
जो दें रूह और अक्ल उसमें लगा,
उसी में हो कायम उसी पर फ़िदा।
पहुँच जायें उस तक तो वापिस न आये,
करे ज्ञान दूर उन की सारी ख़ताये। (१७)
जो ज्ञानी है यक्सा नज़र उस को आय,
वो हाथी हो कुत्ता हो या कोई गाय।
वो हो ब्राह्मण आलम-ओ बुर्दबार,
कि चाण्डाल नापाक मुरदार ख़्वार। (१८)
मुसावात में दिल लगाये हुए,
जनम पर वो काबू हैं पाये हुए।
हैं बे-ऐब-ओ यक्सा जो ज़ात-ए ख़ुदा,
रहे ज़ात में उस की कायम सदा। (१९)
वो आरफ़ ख़ुदा में रहे उस्तवार,
न उलझन उसे हो न दिल बेकरार।
मुसर्रत जो पाय तो शादाँ न हो,
मुज़र्रत जो पुहँचे पशेमाँ न हो। (२०)
न अशिया-ए ज़ाहिर से उस को लगन,
हैं आनन्द से आत्मा में मगन।
जो ब्रह्म योग ही से सरोकार है,
दवामी मुसर्र्त में सरशार। (२१)
तअल्लुक से पैदा जो होता है सुख,
उसी से नुमायाँ हो आख़िर में दुःख।
जो सुख का भी आग़ाज़ - ओ अन्जाम है,
तो दाना कहाँ उस से खुशकाम है। (२२)
न छोड़ा अभी जिस ने तन का कफ़स,
मगर कर लिये ज़ेर तैश - ओ हवस।
असीर - ए बदन रह के आज़ाद है,
तो इन्सां वो योगी है दिल शाद है। (२३)
वो योगी रहे जिस के मन में सरूर,
मुसर्रत हो दिल में तो सीने में नूर।
समझ लीजिये हक़ से वासल उसे,
कि हो ब्रह्म निर्वाण हासल उसे। (२४)
ऋषि मिट चुके जिन के जुर्मो-कसूर,
जिन्हें खुद पे काबू दुइ से जो दूर।
जो सब की भलाई में ख़्वाहाँ रहे,
मिले ब्रह्म निर्वाण आख़िर उन्हें। (२५)
न गुस्सा है जिन में न रंग - ए हवस,
ख्याल-ओ तबीयत पे है जिन को बस।
मिला आत्मा का जिन्हें ज्ञान है,
उन्हें हर तरफ़ ब्रह्म निरवान है। (२६)
मुनि जो न महसूस से दिल लगाये,
मियाने दो अबरू नज़र को जमाये।
बरूँ और दरूँ के बराबर हों दम,
मसावी चले नाक से ज़ेर - ओ बम। (२७)
हवास - ओ दिल-ओ अक्ल कर ले जो राम,
तलाश - ए निजात उस का दिन रात काम।
न डर है न गुस्सा न लालच कही,
निजात उस मुनि को मिली बिलायकी। (२८)
मुझे शाह-ए अरज़ -ओ समाँ जो कहे,
जो समझे हैं यज्ञ तप मेरे ही लिए।
जो माने मुझे खलक का ग़मगुसार,
उसी को मिलेगा सकून-ओ करार। (२९)
तअल्लुक से पैदा जो होता है सुख,
उसी से नुमायाँ हो आख़िर में दुःख।
जो सुख का भी आग़ाज़ - ओ अन्जाम है,
तो दाना कहाँ उस से खुशकाम है। (२२)
न छोड़ा अभी जिस ने तन का कफ़स,
मगर कर लिये ज़ेर तैश - ओ हवस।
असीर - ए बदन रह के आज़ाद है,
तो इन्सां वो योगी है दिल शाद है। (२३)
वो योगी रहे जिस के मन में सरूर,
मुसर्रत हो दिल में तो सीने में नूर।
समझ लीजिये हक़ से वासल उसे,
कि हो ब्रह्म निर्वाण हासल उसे। (२४)
ऋषि मिट चुके जिन के जुर्मो-कसूर,
जिन्हें खुद पे काबू दुइ से जो दूर।
जो सब की भलाई में ख़्वाहाँ रहे,
मिले ब्रह्म निर्वाण आख़िर उन्हें। (२५)
न गुस्सा है जिन में न रंग - ए हवस,
ख्याल-ओ तबीयत पे है जिन को बस।
मिला आत्मा का जिन्हें ज्ञान है,
उन्हें हर तरफ़ ब्रह्म निरवान है। (२६)
मुनि जो न महसूस से दिल लगाये,
मियाने दो अबरू नज़र को जमाये।
बरूँ और दरूँ के बराबर हों दम,
मसावी चले नाक से ज़ेर - ओ बम। (२७)
हवास - ओ दिल-ओ अक्ल कर ले जो राम,
तलाश - ए निजात उस का दिन रात काम।
न डर है न गुस्सा न लालच कही,
निजात उस मुनि को मिली बिलायकी। (२८)
मुझे शाह-ए अरज़ -ओ समाँ जो कहे,
जो समझे हैं यज्ञ तप मेरे ही लिए।
जो माने मुझे खलक का ग़मगुसार,
उसी को मिलेगा सकून-ओ करार। (२९)
(पाचवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)
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