ॐ श्रीपरमात्मने नमः
भक्तियोग
बारहवाँ अध्याय
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! ग्यारहवें अध्याय के आखिरी श्लोक में सगुण-साकार भगवान की अनन्य भक्ति का फल भगवत्प्राप्ति बताकर आखिरी श्लोक में सगुण-साकार स्वरूप भगवान के भक्त की महत्ता जोर देकर समझाई है। इस विषय पर अर्जुन के मन में ऐसी जिज्ञासा पैदा हुई कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म की तथा सगुण-साकार भगवान् की उपासना करनेवाले दोनों उपासकों में उत्तम कौन ? यह जानने के लिए अर्जुन पूछता है: अब आगे --
अर्जुन उवाच --
जो इस तरह भक्ति में सरशार हैं,
फ़कत आप ही के परस्तार हैं।
वो योगी हैं बेहतर कि बातन-परस्त,
ख़फ़ी-लम यज़ल ज़ात आली के मस्त ?। (१)
श्रीभगवानुवाच --
हुए सुन के भगवान् यूं गुलफिशाँ,
हैं बेहतर वही योग में बे-गुमाँ।
यकीं से जो भक्ति करें मुस्तकिल,
मुझी से जो अपना लगाते हैं दिल। (२)
मगर वो जो पूजें ख़फ़ी पाक-ज़ात,
जो कायम है दायम है और पुरसबात।
ख़्याल-ओ ज़हूर-ओ बयाँ से बुलन्द,
जो हाज़िर है नाज़िर है और बे-गज़न्द। (३)
हवास अपने काबू में रक्खे तमाम,
सकूँ-ओ तवाज़न हो दिल में मुदाम।
हर इक की भलाई में मसरूर हो,
मुझी से हो वासिल न महजूर हो। (४)
जो जात-ए ख़फ़ी से लगाते हैं दिल,
उठाते हैं तकलीफ़ वो मुत्सइल।
कि ज़ात-ए ख़फ़ी का है मुश्किल शहूद,
ख़फ़ी को न समझेंगे ऐहल-ए वजूद। (५)
जो आमाल सब मुझ पे क़ुरबाँ करे,
परस्तिश मेरी बा-दिल-ओ जाँ करें।
जो मक़्सूद आला मुझी को बनायें,
फ़कत मेरे ही ध्यान में दिल लगायें। (६)
मैं करता हूँ अर्जुन उन्हें कामगार,
तनसुख के फ़ानी समुन्दर से पार।
दिल अपना जो मुझ में लगाते रहें,
मुझी से निजात अपनी पाते रहें। (७)
लगाये तो मुझ में दिल अपना लगा,
मुझी में तू कर महव अक्ल-ए रसा।
तो फिर इस में हरगिज़ नहीं कुछ कलाम,
तू पायेगा मुझ में क़याम-ओ दवाम। (८)
जो कायम न तू रख सके मुझ में दिल,
न यक्सू रहे ध्यान में मुस्तकिल।
तो अभ्यास से कर तलाश-ए कमाल,
इसी योग से ढूंढ अर्जुन वसाल। (९)
तू अभ्यास के हो न काबिल अगर,
तो फिर मेरी ख़ातिर सब आमल कर।
मेरे वास्ते ही जो आमल हो तू,
तो आमल से मरद-ए कामल हो तू। (१०)
रियाज़त में भी गर तू हीटा रहा,
तो ले फिर मेरे योग का आसरा।
तू रख दिल पे काबू किये जा अमल,
किये जा अमल, छोड़ दे उन के फल। (११)
कि अफ़ज़ल हैं अभ्यास करने से ज्ञान,
मगर ज्ञान से बढ़ के होता है ध्यान।
है तर्क-ए समर ध्यान से भी फजूं।
कि तर्क-ए समर से हो फ़ौरन सकूँ। (१२)
वो इन्सां जो सुख-दुःख में हमवार है,
जो हर इक का हम-दर्द ग़म-ख़्वार है।
किसी का न वैरी हो बख्शे कसूर,
खुदी से भी दूर और तअल्लुक से दूर। (१३)
वो योगी जिसे खुद पे है इख़त्यार,
जो साबर है और अज़्म में उस्तवार।
दिल - ओ अक्ल जो मुझ पे कुरबां करे,
वही है मेरा भक्त प्यारा मुझे। (१४)
जो दुनिया को आज़ार देता नहीं,
जो दुनिया से आज़ार लेता नहीं।
बरी बुग़ज़-ओ ऐश-ओ ग़म-ओ ख़ौफ़ से,
वही है मेरा भक्त प्यारा मुझे। (१५)
जो चौकस है बे-लाग और बे-न्यास,
दुःखों से मुबररा है और पाक-बाज़।
जो तर्क ए जज़ा इब्तदा से करे,
वही है मेरा भक्त प्यारा मुझे। (१६)
मुसररत से भी दूर नफ़रत से दूर,
ग़म-ओ ख़्वाहिश-ओ नेक-ओ बद से नफ़ूर।
हमेशा जो भक्ति में शादाँ रहे ,
वही है मेरा भक्त प्यारा मुझे। (१७)
बराबर जिसे दोस्त दुश्मन तमाम,
न सुख-दुःख न इज़्ज़त न ज़िल्लत से काम।
हो गरमी कि सरदी जिसे एक सी,
लगन हो किसी से न जिस के लगी। (१८)
बराबर हों जिसके लिए मद् दा-ओ ज़म,
वो कम-गो न जिस को ग़म-ओ बेश-ओ कम।
कवि दिल का आज़ाद घर-बार से,
वही है मेरा भक्त प्यारा मुझे। (१९)
जो करते हैं कायम यह अमृत-सा धर्म,
यकीं से जो रखते हैं सीनों को गरम।
जो मकसूद आला समझ ले मुझे,
वही भक्त हैं सब से प्यारे मेरे (२०)
(बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)
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