शनिवार, 3 जून 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का तेहरवां अवतार : मोहिनी अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 


भगवान विष्णु का तेहरवां अवतार :  मोहिनी अवतार 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १२ अवतारों का वर्णन विस्तार से  पढ़ा। आज मित्रों भगवान विष्णु के ऐसे रूप का वर्णन जो है मोहिनी अवतार, जो नाम से मन को मुग्ध कर देने वाले भगवन विष्णु जी का अवतार : 


आज आगे पढ़े : 






धर्म ग्रंथों के अनुसार जैसे कल आपने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई।  देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए।भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया।  देवता व असुर उसे ही देखने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में सबको मोहित कर दिया किया। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए, तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ  तथा असुर दूसरी तरफ  बैठ गए।  देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से। 
फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी, जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं।एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर देवताओं का भला किया।  

जैसे दैत्यों ने अमृत कलश उनके हाथ में देखा, शीघ्रता से बलात उस कलश को छीन लिया। दैत्यों ने पहले से ही यह योजना बना रखी थी और वे इस कार्य में सफल हो गए। तदनंतर, सभी देवता श्री हरि से सहायता हेतु बिनती करने लगे, जिस पर उन्होंने उन्हें उनके कार्य को सिद्ध करने का आश्वासन दिया। उधर, दैत्यों में अमृत पान के लिये विवाद हो गया, उनमें तू-तू, मैं-मैं हो रही थीं।
भगवान श्री हरि विष्णु ने एक अत्यंत अद्भुत, मनोरम और अवर्णनीय स्त्री का रूप धारण किया, जिनका शारीरिक वर्ण नील कमल के सामन श्याम था, अंग बड़े ही आकर्षक थे। नाना प्रकार के आभूषनो से देवी सुसज्जित थी, नूतन जीवन की तरह उभरे हुए स्तन और लम्बे केशों में गुथें हुए बेले के फूलों की माला थी, शरीर मनमोहक सुगंध से युक्त थीं। स्वच्छ साड़ी से ढके हुए नितम्बद्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छठा बिखेर रही थीं। अपनी सलज्ज मुस्कान, नाचती हुए तिरछी भौहें और विलास भरी चितवन से मोहिनी रूपधारी! भगवान श्री हरि ने समस्त दैत्यों को अपनी अनोखी छठा से मोहित करने लगे।योगमाया शक्ति से युक्त हो, भगवान श्री हरि विष्णु का मोहिनी अवतार धारण कर दैत्यों के पास जाना।दैत्य एक दुसरें के हाथों से अमृत कलश छीन रहें थे, इसी बीच एक मनोरम स्त्री उनके बीच में चली आई। सभी उस मनोरम स्त्री के सौन्दर्य को देख हठात् मोहित हो गए, वे सभी आपस की लाग-डाँट भूल कर, उन मनोरम स्त्री के पास दौड़ कर गये। दैत्यों ने देवी से पूछा तुम कौन हौं? तथा कहाँ से आई हों? सुंदरी तुम क्या करना चाहती हो? देवी को देख कर झगड़ते हुए दैत्यों के बीच खलबली मच गई। दैत्य कहने लगे! अबतक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने तुम्हें स्पर्श तक नहीं किया होगा, अवश्य ही विधाता ने तुम्हें सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये भेजा होगा। वैसे तो हम सभी एक ही जाति के हैं, परन्तु एक ही वास्तु की चाह में हमारे बीच बैर पैदा कर दी हैं, सुंदरी ! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो। तुम न्याय अनुसार निष्पक्ष भाव से इस अमृत को बाट दो, जिससे हम लोगों में और अधिक झगड़ा न हो। (वास्तव में श्री हरि विष्णु योगमाया शक्ति से युक्त हो, मोहिनी अवतार धारण किये हुए दैत्यों के पास गए थे, योगमाया शक्ति के प्रभाव से तीनों लोकों में ऐसा कोई भी नहीं हैं जिसे वश में नहीं किया जा सकता हैं, यही योगमाया शक्ति 'आदि शक्ति महामाया' हैं।)

 दैत्यों के इस प्रकार प्रार्थना करने पर, तीनों लोकों को मोहित करने में समर्थ मोहिनी देवी ने दैत्यों से हंसकर कहा!मैं कुलटा हूँ तथा आप महर्षि कश्यप के संतान हैं, मुझे न्याय का भार क्यों दे रहे हैं? बुद्धिमान पुरुष को स्वेच्छाचारिता स्त्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

मोहिनी देवी की परिहास भरी वाणी, दैत्यों को और अधिक आश्वस्त कर गई और उन्होंने अमृत से भरा कलश उनके हाथों में दे दिया। मोहिनी देवी ने अमृत का कलश अपने हाथ में ले, दैत्यों से कहा! मैं जो भी करूँ, फिर चाहें वो उचित हो या अनुचित, अगर तुम्हें स्वीकार हो तो तुम्हें अमृत बाट सकती हूँ। उनकी मोहयुक्त मीठी बात सुनकर, सभी दैत्य देवी मोहिनी के प्रस्ताव पर सहमत हो गए। मोहिनी देवी ने अगले दिन अमृत पान करने की सलाह दी, उनके आदेशानुसार अगले दिन समस्त दैत्य स्नान कर अमृत पान करने हेतु पंक्ति में बैठे, देवता भी वहाँ आ कर बैठ गए। देवताओं के वहाँ आकर बैठने पर, मोहिनी देवी राजा बलि से बोलीं! "इन्हें आप लोग अपने अतिथि समझें, ये धर्म को ही सर्वस्व मान कर उस का साधन करने वाले हैं। इनके लिये यथा शक्ति दान देना चाहिये, जो लोग अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों का उपकार करते हैं, उन्हें ही धन्य मानना चाहिये, वे ही सम्पूर्ण जगत के रक्षक तथा परम पवित्र हैं, जो केवल अपना पेट भरने के लिये उद्योग करते हैं, वे क्लेश के भागी होते हैं।" मोहिनी देवी के इस प्रकार कहने पर, असुरों के देवताओं को भी अमृत पान करने हेतु आमंत्रित किया। तदनंतर मोहिनी देवी ने कहा! वेद कहते हैं कि सबसे पहले अतिथियों का सत्कार होना चाहिये, महाराज बलि अप स्वयं ही कहे की मैं पहले किसको अमृत पान कराऊँ? बलि ने उत्तर दिया! देवी आपकी जैसे रुचि हो।    

मोहिनी देवी अमृत का कलश हाथ में ले कर आई, वे बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुई थीं, ऑंखें मद से विह्वल हो रहीं थीं, कलश के समान स्तन तथा गज शावक के सूंड के समान जंघायें थीं, देवी के स्वर्ण नुपुर अपनी झंकार से सभी को मोहित कर रहीं थीं। सुन्दर कानों में कुंडल थे तथा उनकी नासिका, कपोल तथा मुखारविंद बहुत ही मनोरम थीं। मोहिनी देवी ने सोचा, असुर तो स्वाभाव से ही क्रूर स्वभाव वाले हैं, इनको अमृत पिलाना उचित नहीं होगा। देवी ने दोनों को अलग अलग पंक्तियों में बैठा दिया, दैत्यों को हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित कर, देवी! देवताओं के पास आई तथा उन्हें अमृत पान करने लगी। दैत्य चुप चाप बैठ कर देखते रहें, एक तो उनका मोहिनी देवी के प्रति स्नेह हो गया था तथा स्त्री से झगरने में सभी अपनी ही निंदा समझते थे। मोहिनी देवी में उनका अत्यंत प्रेम हो गया था, वे डर रहें थे कि कही उनका सम्बन्ध टूट न जाये, देवी ने भी पहले दैत्यों का बड़ा ही सम्मान किया जिससे वे और अधिक आश्वस्त हो गए। देवताओं को अमृत पान करते हुए, राहु नाम का दैत्य श्री हरि की छल को समझ गया तथा देवताओं का भेष बदल कर उसने भी अमृत का पान कर लिया, जिसे सूर्य तथा चन्द्रमा ने देख लिया। तक्षण की सूर्य तथा चन्द्रमा द्वारा भगवान श्री हरि को सूचित करने पर, भगवान ने अपने चक्र से राहु का गला काट दिया। राहु केवल अमृत को अपने मुँह पर ले ही पाया था, उसके गले से अमृत उदार में नहीं उतरा था, परिणामस्वरूप उसका मस्तक अमर हो गया तथा धढ़ निचे गिर गया। तदनंतर, ब्रह्मा जी ने राहु को छाया ग्रह बना दिया, पृथवी की छाया को राहु माना जाता हैं। दैत्यों के भगवान से विमुख होने के कारण अमृत की प्राप्ति नहीं हुई, देखते ही देखते श्री हरि विष्णु गरुढ़ पर स्वर हुए और वहां से चेले गए। दैत्यों ने देखा की उनके साथ छल हुआ हैं, उन्होंने देवताओं पर अपने अस्त्र-शास्त्रों से धावा बोल दिया। क्षीरसागर के तट पर, दैत्यों तथा देवताओं के बीच बड़ा ही घनघोर युद्ध हुआ जिसे देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता हैं।

भगवान विष्णु के अवतार मोहिनी रूप को देख कर, कामदेव को भस्म करने वाले शिव का मोहित हो जाना 
जब भगवान शिव ने सुना कि श्री हरि ने दैत्यों को मोहित कर, देवताओं को अमृत पिलाने के लिये स्त्री रूप धारण किया, वे उस स्थान पर गए जहाँ भगवान श्री हरि निवास करते थे। वहा, जाकर शिव जी ने भगवान श्री हरि की स्तुति-वंदना की; श्री हरि ने शिव जी को दैत्यों को मोहित करने वाली अपनी मोहिनी रूप दिखाई। एकाएक शिव जी, एक रंग-बिरंगे फूलों से भरे-पुरे उपवन में पहुँचें, वहाँ उन्होंने बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए, कमर में करधनी पहने एक सुन्दर स्त्री को गेंद उछाल-उछाल कर खेलते हुए देखा। गेंद से खेलते हुए उन देवी ने लज्जा भाव से मुसकराकर तिरछी नजर से शिव जी की और देखा, बस फिर क्या था काम देव को भस्म करने वाले भगवान शंकर का मन उनके हाथ से निकल गया। वे मोहिनी देवी को निहारने लगे, उनकी चितवन के रस में डूब शिव जी इतने विह्वल हो गए कि उन्हें अपने आप की भी सुध न रहीं। जहाँ भगवान शंकर की मोहिनी देवी पर ऑंखें लग जाती थीं, लगी ही रहती थीं तथा उनका मन वही रमण करने लगता था, वे मोहिनी देवी के अत्यंत आकृष्ट हो गए थे। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जन पड़ती थीं, उनके हाव-भाव के शिव जी का विवेक शून्य हो गया था तथा वे कामातुर हो गए थे।



वैशाख शुक्ल एकादशी तिथि को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार कार्तिक के समान वैशाख मास उत्तम माना गया है उसी प्रकार वैशाख मास की यह एकादशी भी उत्तम कही गयी है। इसका कारण यह है कि संसार में सभी प्रकार के पापों का कारण मोह माना गया है। विधि विधान पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखने से मोह का बंधन ढ़ीला होता जाता है और मनुष्य ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर लेता है। इससे मृत्यु के बाद नर्क की कठिन यातनाओं का दर्द नहीं सहना पड़ता है।
मोहिनी एकादशी के विषय में शास्त्र कहता है कि, त्रेता युग में जब भगवान विष्णु रामावतार लेकर पृथ्वी पर आये तब इन्होंने भी गुरू वशिष्ठ मुनि से इस एकादशी के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। संसार को इस एकादशी का महत्व समझाने के लिए भगवान राम ने स्वयं भी यह एकादशी व्रत किया। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को इस व्रत को करने की सलाह दी थी।





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