गुरुवार, 8 जून 2017

आप जानते है भगवान् विष्णु का सत्रहवाँ अवतार जिसको पढ़ने से तत्काल आये दुःख और कर्ज से मुक्ति मिलती है (भाग - पहला)

ॐ गणपतये नमः 

  भगवान् विष्णु का सत्रहवाँ अवतार : श्रीहरि अवतार 


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १६ अवतारों का वर्णन विस्तार से  पढ़ा। आज ऐसे अवतार का वर्णन करुगा जिसको पढ़ कर सम्पूर्ण दुःखो को अंत हो जाता है।धर्मशास्त्रों की मान्यता है जो भागवत में भी वर्णित है कि इस को पढ़ कर कर्ज से और तत्काल आये दुःख से भी मुक्ति मिल जाती है। 





1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव,  9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार,  11- कूर्म अवतार 12- भगवान धन्वन्तरि 13- मोहिनी अवतार  14- नरसिंह अवतार 15- वामन अवतार  16 - हयग्रीव अवतार 


१७- श्रीहरि अवतार 

धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन समय में त्रिकूट नामक पर्वत की तराई में एक शक्तिशाली गजेंद्र अपनी हथिनियों के साथ रहता था। एक बार वह अपनी हथिनियों के साथ तालाब में स्नान करने गया। वहां एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया और पानी के अंदर खींचने लगा। गजेंद्र और मगरमच्छ का संघर्ष एक हजार साल तक चलता रहा। अंत में गजेंद्र शिथिल पड़ गया और उसने भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। गजेंद्र की स्तुति सुनकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया।  

अगर आप को कुछ विस्तार से बताऊ श्रीमद्धभागवत के अनुसार : 

गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में किया गया है। क्षीरसागर में दस हजार योजन ऊँचा त्रिकुट नाम का पर्वत था। उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र(हाथी) निवास करता था। वह सभी हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था। उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे तथा हथिनियाँ घूम रही थी ।
बड़े जोर की धुप के कारण उसे तथा उसके साथियों को प्यास लगी । तब वह अपने समूह के साथ पास के सरोवर से पाने पी कर अपनी प्यास बुझाने लगा। प्यास बुझाने के बाद वे सभी साथियों के साथ जल- स्नान कर जल- क्रीड़ा करने लगे । उसी समय एक बलवान मगरमच्छ ने उस गजराज के पैर को मुँह मे दबोच कर पानी के अंदर खीचने लगा । गजेंद्र ने अपनी पूरी शक्ति लगा कर अपने आप को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो पाया । गजेंद्र के साथ आये हुए हाथी के बच्चे और हथिनियों ने भी काफी जोर लगाया लेकिन सफल न हो सके ।
जब गजेंद्र ने अपने आप को मौत के निकट पाया और कोई उपाय शेष नहीं रह गया तब उसने प्रभु की शरण ली और आर्तनाद से  प्रभु की सतुति करने लगा। जिसे सुनकर भगवान श्री हरि स्वयं आकर उसके प्राणों की रक्षा की ।
जब शुकदेव जी ने राजा परिक्षित को यह कथा सुनायी तो राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा कि हे शुकदेव महाराज ! यह गजेंद्र कौन था ? जिसकी पुकार सुनकर भगवान भोजन छोड़कर आ गए ।
तब शुकदेव जी महाराज कहते हैं- हे परिक्षित पूर्व जन्म में गजेंद्र का नाम इन्द्रद्युम्न था । वह द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था । वह भगवान का बहुत बड़ा सेवक था। उसने अपना राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहते हुए जटाएँ बढाकर तपस्वी के वेष में भगवान की अराधना किया करता था। एक दिन वहाँ से अगस्त्य मुनि अपने शिष्यों के साथ गुजरे और उन्होंने राजा को एकाग्रचित होकर उपासना करते हुए देखा। अगस्त्य मुनि ने देखा कि यह राजा अपने प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म को छोड़कर तपस्वी की तरह रह रहा है अत: उस राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रोधित हो गये । और क्रोध में आकर उन्होंने राजा को शाप दिया – कि हे राजा तुमने गुरुजनों से बिना शिक्षा ग्रहण किये हुए अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहे हो अर्थात् हाथी के समान जड़ बुद्धि हो गये इसलिये तुम्हें वही अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’।
राजा ने इस श्राप को अपना प्रारब्ध समझा। इसके बाद दूसरे जन्म में उसे आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना के प्रभाव से हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी। भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना लोक में जगह दी । गजेंद्र को जिस ग्राह ने पकड़ा था वह पूर्व जन्म में ‘हूहू’ नाम का श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जलाशय में स्नान कर रहे थे । उसी जलाशय यह हूहू नामक गंधर्व ने चुपचाप अंदर जाकर ऋषि के पैर पकड़ लिये और मगर मगर (मगरमच्छ) कहकर चिल्लाने लगा। इससे क्रोधित होकर देवल ऋषि ने श्राप दे हूहू को श्राप देते हुए कहा –हे! हुहु गन्धर्व तुझे लाज नहीं आती। तुझे संत-महात्मा का आदर करना चाहिए और तू मजाक उड़ा रहा है। और मगर की तरह आकर मेरा पैर पकड़ता है। अरे दुष्ट! अगर तुझे मगर बनने का इतना ही शोक है तो तुझे मगर की योनि प्राप्त होगी। शाप मिलते हीं वह गंधर्व ऋषि से क्षमायाचना करने लगा । तब ऋषि ने कहा – तू मगर की योनी में जरूर जन्म लेगा लेकिन तेरा उद्धार भगवान् के हाथों होगा। इसी ग्राह रूपी हूहू गंधर्व का उद्धार भगवान श्री हरि ने किया ।

मित्रों कल आप को उस स्तोत्र से अवगत कराना है जिस को पढ़ने से दुःखों का नाश हो जाता है। 

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