रविवार, 25 जून 2017

तुरंत शांति पाने के लिए पढ़े श्रीरामसुखदासजी के विचार (भाग-पहला)

ॐ गं गणपतये नमः 




जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आज हम ऐसे विचारो से अवगत होगे जो महान संत के विचार है श्रीरामसुखदासजी के विचार जो तुरंत शांति प्रदान करते है, हमारे अंदर जब नकारात्मक विचार आते है और दुःख का समय हो तो ये विचार हमारे जीवन में शांति के साथ आध्यात्मिकता की ओर भी बढ़ाते है : 

विचार: पहला 

जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख प्राप्त होता है, इसी प्रकार बिना चाहे सांसारिक सुख भी प्राप्त होता है, अत: स्वयं सांसारिक सुख की इच्छा कभी नही करनी चाहिए l



वस्तु के न मिलने से हम अभागे नही हैं, बल्कि भगवान के अंश होकर भी हम नाशवान वस्तु की इच्छा करते हैं, यही हमारा वास्तविक अभागापन है l
भगवान जो कुछ करते हैं उसी में मेरा हित है, ऐसा विश्वास करके हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहना चाहिए l
आप भगवान को नही देखते पर भगवान आपको निरंतर देख एहे हैं l
जब तक नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी तब तक बोध नही होगा l
अभी जो धन प्राप्त हो रहा है वह वर्तमान कर्मो का फल नही अपितु प्रारब्ध (पूर्वजन्मो के कर्मो ) का फल है l वर्तमान में धन प्राप्ति के लिए जो बेईमानी की जाती है उसका फल तो आगे मिलेगा l
जैसे अपना दुःख दूर करने हेतु रूपये खर्च करते हैं वैसे ही दूसरों का दुःख दूर करने हेतु भी खर्च करो, अभी हमे रूपये रखने का अधिकार है l
मनुष्य का सम्मान एवं प्रतिष्ठा धन बढने से नही है, बल्कि धर्म बढने से है l
भगवान के नाम का जप और कीर्तन दोनों कलयुग से रक्षा करके उद्धार करने वाले हैं l
नाम जप में प्रगति होने की पहचान है, नाम जप छूटता ही नही l
नाम जप में रूचि नाम जप करने से ही होती है l
भगवान के नाम का जप सबके लिए है, और जीभ भी सबके मुख में होती है, परन्तु फिर भी कितने ही नरक में जाते हैं, आश्चर्य है l
भगवान का कौन सा नाम बढिया है, और भगवान का कौन सा रूप बढिया है, इसकी परीक्षा करने की बजाय अपनी परीक्षा करनी चाहिए, कि मुझे भगवान का कौन सा नाम और रूप अधिक प्रिय है l
दूसरों का बुरा करने से तो पाप लगता ही है, लेकिन दूसरों की बुराई कहने और सुनने में भी पाप लगता है l
भगवान से विमुख होना और संसार के सम्मुख होना, यही सबसे बड़ा पाप है l
किसी व्यक्ति को भगवान की और ले जाने के सामान कोई पुन्य नही है कोई दान नही है l 
पहले पाप कर लें फिर प्रायश्चित्त कर लेंगे ऐसे जान बूझ कर किये गए पाप प्रायश्चित्त से नष्ट नही होते
प्रत्येक मनुष्य को भगवान् की और चलना ही पड़ेगा, भले आज चले या अनेक जन्मो के बाद चले... तो फिर देरी क्यों ? 
संसार के कार्य में तो लाभ और हानि दोनों ही होते हैं, परन्तु भगवान के कार्य में लाभ ही लाभ होता है l
सांसार में असंतोष करने से पतन होता है और परमात्मा में असंतोष करने से उत्थान होता है l
प्रारब्ध का कार्य तो केवल सुख देने वाली या दुःख देने वाली परिस्थिति को उत्पन्न करना है, परन्तु उसमे सुखी या दुखी होना उसके चयन में मनुष्य स्वतंत्र है l
यह परमात्मा का विधान है कि अपने पाप से अधिक दंड कोई नही भोगता और जो दंड प्राप्त होता है वह अपने ही किसी न किसी पाप का फल होता है l 
संसार में प्रेम घटते ही परमात्मा में प्रेम हो जाता हि
भगवान के प्रति प्रेम होना, आकर्षण होना, खिंचाव होना ही भक्ति है l

विचार : दूसरा 

संसार बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त हैं उनकी ममता और जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त नही हैं उनकी कामना का त्याग करता l
शरीर संसार का अंश है, हम स्वयं परमात्मा के अंश हैं, इसलिए शरीर को संसार को अर्पित कर देना चाहिए अर्थात संसार की सेवा में लगा देना चाहिए, और स्वयं को परमात्मा को अर्पित कर दे, फिर आज ही मुक्ति है l
अनुकूलता - प्रतिकूलता ही संसार है, अनुकूलता - प्रतिकूलता में प्रसन्न और दुखी होने से मनुष्य बंध जाता है, तथा प्रसन्न और दुखी न होने से मुक्त हो जाता है l




अपने लिए सुख चाहने से नाशवान सुख प्राप्त होता है और दूसरों को सुख पहुंचाने से अविनाशी सुख प्राप्त होता है lसुख भोगने हेतु स्वर्ग है, तथा दुःख भोगने हेतु नरक है तथा सुख-दुःख से ऊँचे उठ कर महान आनन्द की प्राप्ति हेतु मनुष्य लोग है lजैसे रोगी का उद्देश्य निरोग होना है, इसी प्रकार मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपना कल्याण करना है lइन्द्रियों द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं, पर उन भोगों को भोगना मनुष्य जीवन का उद्देश्य नही l सुख –दुःख से रहित तत्व को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है l वास्तव में परमात्मा प्राप्ति के सिवाय मनुष्य जीवन का अन्य कोई प्रयोजन नही, आवश्यक केवल इस प्रयोजन को पहचान कर इसे पूरा करने की है lजो आराम चाहता है वह अपनी वास्तविक उन्नति कभी नही कर सकता lशरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि इनसे अपना संबंध न रखना ही सच्चा एकांत है l वर्तमान समय में घरों में एवं समान में जो अशांति देखने में आ रही है, उसका मूल कारण है कि लोग अपने अधिकार की मांग तो करते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों का पालन नही करते lअपने हित हेतु किया गया कर्म ‘असत’ तथा दूसरों के हित के लिए किया गया कर्म ‘सत’ है, असत का परिणाम जन्म मरण और सत का परिणाम परमात्मा प्राप्ति है lसंसार के सभी संबंध अपने कर्तव्य का पालन करने हेतु हैं, न कि अधिकार जमाने हेतु, सुख देने के लिए है न कि सुख लेने के लिए lकल्याण की प्राप्ति अत्यंत सुगम एवं सरल है, परन्तु कल्याण की ईच्छा ही न हो तो फिर वह इच्छा सरलता किस काम की ?घर में रहने वाले सब लोग स्वयं को सेवक तथा दूसरों को सेव्य समझें, तो सबकी सेवा भी हो जाएगी और सबका कल्याण भी हो जायेगा l“मेरे मन की हो जाए” इसी को कामना कहते हैं... यह कामना ही दुःख का कारण है, अत: इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नही हो सकता lजैसे जैसे कामनाएं नष्ट होती हैं, वैसे वैसे ही साधुता आती है, और जैसे जैसे कामनाएं बढती हैं वैसे वैसे साधुता लुप्त होती है, क्यूंकि (कारण) असाधुता का मूल कामना ही है lऐसा होना चाहिए, ऐसा नही होना चाहिए... इसी में सब दुःख भरे हुए हैं lयदि शान्ति चाहते हो तो कामनाओं का त्याग करो 





कोई टिप्पणी नहीं: