ॐ गं गणपतये नमः
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! श्रीरामसुखदासजी के विचार जो तुरंत शांति प्रदान करते है, हमारे अंदर जब नकारात्मक विचार आते है और दुःख का समय हो तो ये विचार हमारे जीवन में शांति के साथ आध्यात्मिकता की ओर भी बढ़ाते है कल कुछ विचार पढ़े आज आगे बढ़ते है पढ़ते है अनमोल विचार :
🚩एकांत में रहते हुए,
🚩 गंगा स्नान करते हुए,
🚩 भगवान का पूजन करते हुए,
🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए
🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l
💠
जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती
💠
ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l
गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है
जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा।
🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है।
🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔जहाँ राग-द्वेष,
हर्ष-शोक,
अच्छा-मंदा,
अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है।
🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🚩 गंगा स्नान करते हुए,
🚩 भगवान का पूजन करते हुए,
🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए
🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l
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जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती
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ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l
गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है
जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा।
🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है।
🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔जहाँ राग-द्वेष,
हर्ष-शोक,
अच्छा-मंदा,
अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है।
🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
- महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।
- पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।
- धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
- सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
- महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।
- मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
- आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
- झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।
- संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
- बार बार मन से पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित बात है ।
- जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
- विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में कोई उत्तम वस्तु नहीं ।
- सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।
- ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा ।
- जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।
- धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।
- अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।
- भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये करने से ही कल्याण होता है ।
- भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई भी साधन नहीं है ।
- ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास और जप करना चाहिये ।
- सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये ।
- भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये ।
- एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है ।
- सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना चाहिये ।
- भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।
- भगवान का नाम जपते समय संसार के बारे में नही सोचना चाहिए और संसार के काम करते समय भी भगवान को नही भूलना चाहिए l
- जिसमे बचपन से ही या जवानी में भक्ति नही की वो बुढापे में क्या भक्ति करेगा ?
- जैसे व्यापर वो बढिया होता है जिसमे अधिक लाभ हो उसी प्रकार साधना वही बढिया होती है जिसमे अधिक मन भगवान में लगे l
- जैसे जैसे समाज में लोग केवल संसार को ही महत्व देना आरम्भ करते हैं और धर्म की उपेक्षा (ignore) करते हैं वैसे ही समाज में अशांति, अपराध, पाप बढ़ते हैं या यूं कहें कि धर्म की उपेक्षा करेंगे तो अधर्म बढ़ता है l
- दुःख आता ही इस लिए है कि सुख की इच्छा छूट जाए l
- भक्त को सदैव दूसरों कि सेवा करने का लालच होना चाहिए, दूसरों को सुख देकर भक्त स्वयं वहां पहुँच जायेगा जहाँ उसको कभी कोई दुःख नही होगा l
- सुख पाना चाहते हो तो पहले दुसरों को सुख दो, जैसे बीज बोओगे, वैसी ही फसल काटोगे l
- जो दूसरों को हानि पहुंचाता है वो भी वास्तव में अपनी ही हानि कर रहा है और जो दूसरों का भला कर रहा है वो वास्तव में अपना ही भला कर रहा है l
- “दूसरे सुखी हो” - जब व्यक्ति ऐसा भाव रखेगा तो सब सुखी हो जायेंगे और स्वयं भी सुखी हो जायेगा परन्तु “मैं सुखी हो जाऊं” – जब व्यक्ति यह भाव रखेगा तो सब दुखी हो जायेंगे और व्यक्ति स्वयं भी दुखी हो जाएगा l
- श्रेष्ठ भक्त वही है जो दूसरों की भलाई में लगा हुआ है l
- जो सबका भला चाहता है, वो भगवान के हृदय में स्थान पाता है l
- जो दूसरों का भला कर रहा है, वह कहीं भी रहे भगवान को पा लेगा l
- जैसे कोई कम्पनी में अच्छा काम करने से कम्पनी का स्वामी प्रसन्न होता है, ऐसे ही संसार की सेवा करने से संसार के स्वामी (भगवान) प्रसन्न हो जाते हैं
- संसार में दूसरों के लिए जैसा करोगे अपने लिए भी वैसा हो जायेगा, इसलिए सदैव दूसरों का भला करो l
- जब कभी सेवा करने का अवसर मिले तो प्रसन्न होना चाहिए कि भाग्य खुल गया l
- धार्मिक पुस्तकें, अच्छे विचारों और सत्संग से बुरे से बुरा संभाव भी अच्छा हो जाता है l
- आज के समय में तो मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर रहा है, क्यूंकि पशु भी दूसरों का के अधिकार की वस्तुएं नही लेते, मनुष्य तो दूसरों का अधिकार मार रहा है l
- हमारी कमाई में किसी दूसरे के अधिकार का एक रूपये न हो इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए l
- कुछ करना है तो दूसरों की सेवा करो-कुछ जानना चाहते हो तो अपने आप को जानी -मानना चाहते हो तो भगवान् को मानो- तीनो का परिणाम एक ही होगा
- हमे जिस व्यक्ति या वस्तु से मोह (जुड़ाव) हो, उसमे भी भगवान को ही देखना चाहिए l
- प्रत्येक समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हम किसी की हानि तो नही कर रहे हैं ?
- जैसे बच्चा प्रत्येक स्थिति में माँ को ही पुकारता है इसी प्रकार भक्त को भी प्रत्येक स्थिति में भगवान को ही पुकारना चाहिए l
- जिस कार्य को बाद में सीधा नही किया जा सके, उस उल्टेकार्य को कभी नही करना चाहिए l
- चरित्र की सुन्दरता ही वास्तविक सुन्दरता है l
- कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान की दी हुई वस्तुएं अच्छी लगती है परन्तु भगवान नही अच्छे लगते l
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