तुरंत शांति पाने के लिए पढ़े श्रीरामसुखदासजी के विचार (भाग-दूसरा)
भगवान को अपना मानना योग है और भगवान से कुछ चाहना भोग है l
बाहर का प्रकाश तो सूर्य करता है, भीतर का प्रकाश संत महात्मा करते हैं l
“मुझे मिल जाये” यह भोग है “दूसरों को मिल जाये” यह योग है l
योगी के द्वारा सबको सुख मिलता है और भोगी के द्वारा सबको दुःख ही मिलता है l
मनुष्य शरीर मिल गया परन्तु परमात्मा की प्राप्ति नही हुई यही सबसे बड़ा दुःख होना चाहिए l
शरीर का सदुपयोग तो केवल संसार की सेवा में ही है l
पापी मनुष्य तो पशुओं से भी नीच है क्योंकि पशु तो अपनी 84 लाख योनियों को भोग लेने के बाद मनुष्य बनने वाला है और जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी पाप कर रहा है वह फिर 84 लाख योनियों में जाने की तैयारी कर रहा है l
मनुष्य शरीर केवल परमात्मा की प्राप्ति हेतु मिला है, परमात्मा की प्राप्ति करना ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है l
सुख भोगने के लिए स्वर्ग है और दुःख भोगने के लिए नरक है, और सुख दुःख दोनों से ऊँचा उठ कर अपना कल्याण करने के लिए मनुष्य शरीर है l
मन की चंचलता मिटाने की इतनी आवश्यकता नही जितना मन को जो संसार प्यारा लगता है उस कामना को मिटाने की... जिससे मन की चंचलता अपने आप मिट जाएगी l
भगवान हमारे हैं और जो कुछ भी भगवान ने हमे दिया वह भी भगवान का ही है l
परमात्मा के सिवाय कोई मेरा नही है यही वास्तविक भक्ति है l
संसार अधूरा है इसलिए अधुरा ही मिलता है, और परमात्मा पूरे हैं इसलिए पूरे ही मिलते हैं l
जैसे मछली जल के बिना व्याकुल हो जाती है, ऐसे ही यदि हम भगवान के बिना व्याकुल हो जायें, तो भगवान के मिलने में समय नही लगेगा l
जैसे गाय का दूध गाय के लिए नही है अपितु दूसरों के लिए है ऐसे ही भगवान की कृपा भी उनके लिए नही अपितु हम सबके लिए है l
भगवान के भक्त को भगवान पहले दूर दिखते हैं, फिर पास दिखते हैं, फिर अपने अंदर दिखते हैं और फिर केवल भगवान ही दिखते हैं l
जिसकी दृष्टि संसार पर रहती है वह कहता है... “भगवान कहाँ है?” ... जिसकी सदा भगवान पर रहती है वह कहता है ...”भगवान कहाँ नही है?”
भगवान सबसे शक्तिशाली होने पर भी हमसे दूर होने का सामर्थ्य नही रखते l
जैसे सूर्य प्रकट होता है... पैदा नही होता, ऐसे ही भगवान अवतार के समय प्रकट होते हैं, हमारी तरह पैदा नही होते l
जब अंत:करण में संसार का महत्व है तब तक परमात्मा का महत्व समझ में नही आता l
भगवान अपने भक्त का जितना आदर करते हैं उतना आदर करने वाला संसार में कोई नही, भक्त भगवान को जिस रूप में देखना चाहता है, भगवान उसके लिए वैसे ही बन जाते हैं l
जैसे लालची व्यक्ति की दृष्टी धन पर ही रहती है ऐसे ही भक्त की दृष्टि सदा भगवान पर ही रहनी चाहिए l
जो भगवान का सच्चा भक्त होता है वह कोई कर्म नही करता अपितु पूजा ही करता है क्योंकि प्रत्येक कर्म करते हुए उसकी भावना पूजा की रहती है l
जिसका मन भगवान में लगा रहता है उसे सामान्य मनुष्य नही समझना चाहिए, क्यूंकि वह भगवान के दरबार का सदस्य है l
याद रखो किसी का बुरा करोगे तो उसका बुरा हो या न हो तुम्हारा नया पाप अवश्य हो जायेगा l
मनसे भगवान् का चिंतन, वाणीसे भगवान् के नामका जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दनकी नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।
जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं ।
जो संसार समुद्र से कुछ लेना चाहता है वह डूब जाता है और जो देना चाहता है वह पार हो जाता है l
अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा।
अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।
१ स्नान और नित्यकर्म किये बिना दातुन और जलके सिवा कुछ भी मुख में न लें ।
२ श्रीभगवान् के भोग लगाकर तथा यथादिकार बलिवैश्वदेव करके ही भोजन करें ।
३ तुलसीदल के सिवा चलते फिरते या खड़े हुए कोई भी चीज कभी न खाय ।
४ भोजन के आदि और अंत में आचमन करे ।
धन किसी को अपना दास नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही धन का दास बन कर अपना पतन कर लेता है l
मुक्ति इच्छाओं के त्याग से होती है वस्तुओं के त्याग से नही l
यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरों को बुरा समझने का भी आपको कोई अधिकार नही है l
मनुष्य का अंत:करण जितना अपवित्र होता है उतना ही उसे दूसरों के दोष दिखते हैं l
दूसरों का दोष देखने से ना तो हमारा भला होता है न दूसरों का l
जैसा मैं चाहूं वैसा हो जाये यह इच्छा जब तक रहेगी, तब तक शांति नही मिल सकती l
मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं को चाहता है, ये कितने आश्चर्य की बात है l
जितना हो सके दूसरों की आशाएं पूरी करने का प्रयास करो परन्तु दूसरों से आशा मत रखो l
परमात्मा की अभिलाषा करते हो तो संसार की अभिलाषाओं को छोडो l
कामना के कारण ही कमी है, कामना से रहित होने पर कोई कमी नही रहती l
दया के सामान कोई धर्म नहीं, हिंसा के सामान कोई पाप नहीं, ब्रह्मचर्य के सामान कोई व्रत नहीं, ध्यान के सामान कोई साधन नहीं, शान्ति के सामान कोई सुख नहीं, ऋणके सामान कोई दुःख नहीं, ज्ञान के सामान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के सामान कोई इष्ट नहीं, पापी के सामान कोई दुष्ट नहीं — ये एक-एक अपने –अपने स्थान पर अपने-अपने विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं ।
मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काममें व्यतीत करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।
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