रविवार, 23 अप्रैल 2017

श्रीमद्भगवद्गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय : पुरुषोत्तमयोग

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 































पुरुषोत्तमयोग 
पन्द्रहवाँ अध्याय 
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! चौदहवे अध्याय में श्लोक ५ से १९ तक तीनों गुणों का स्वरूप, उनके कार्य उनका बंधनस्वरूप और बंधे हुए मनुष्य की उत्तम, मध्यम आदि गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया।  श्लोक १९ तथा २० में उन गुणों से रहित होकर भगवदभाव को पाने का उपाय और फल बताया।  फिर अर्जुन के पूछने से २२वे श्लोक से लेकर २५ वें श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों एवं आचरण का वर्णन किया। २६ वे श्लोक में सगुण परमेश्वर को अनन्य भक्तियोग तथा गुणातीत होकर ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बनाने का सरल उपाय बताया। 
अब वह भक्तियोगरूप अनन्य प्रेम उन्पन्न करने के उद्देश्य से सगुण परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरूप का तथा गुणातीत होने में मुख्य साधन वैराग्य और भगवद्शरण का वर्णन करने के लिए पन्द्रहवाँ अध्याय शुरू करते है।  इसमें प्रथम संसार से वैराग्य पैदा करने हेतु भगवान् तीन श्लोक द्वारा वृक्ष के रूप में संसार का वर्णन करके वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा उसे काट डालने को कहते है। 

श्रीभगवानुवाच ---
सुन अब ऐसे पीपल का अर्जुन बयाँ,
जड़े जिस की ऊपर तले डालियाँ। 
शजर लफ़ना जिस के पत्ते हैं वेद,
वो हैं वेद-दाँ पाये जो इस का भेद। (१)

गुणों से बढ़ें डालियाँ लाकलाम,
हैं आशियाये महसूस गुन्चे तमाम। 
जड़े इस की इन्सां की दुनिया तक आयें,
जकड़ कर इसे कर्म से बांध जाये। (२)

तसव्वर में शक्ल इस की आये कहाँ,
न अव्वल न आख़िर न जड़ का निशाँ। 
जड़े इस की मज़बूत हैं चार-सू,
यह शमशीर तजरीद से काट तू। (३)

इन्हें काट कर ढूंढ फिर वो मुकाम,
जहाँ जा के तू फिर न लौटे मुदाम। 
तू कह "मुझ को परमेश्वर की अमाँ,
किया जिस ने हस्ती का दरिया रवाँ।" (४)

फ़रेब-ओ तकब्बर से पा कर निजात,
हवस छोड़ कर जो रहें महव-ए जात। 
तअल्लुक न सुख-दुःख के इज़दाद हों,
मुकाम-ए अबद पा के दिल शाद हों। (५)

जले मेहर-ओ माह की न मिशल वहाँ,
न हो उस जगह आग शोलाह-फ़िशां। 
मुकाम-ए मुअल्ला मेरा है वही,
पहुंच कर जहाँ से न लौटे कोई। (६)

मेरी आत्मा ही का जुज्ब-ए कदीम,
बने रूह हो एहल-ए जाँ में मकीम। 
जो माया में लिपटे हैं मन और हवास,
यही रूह खींचे उन्हें अपने पास। (७)

जहाँ ईश्वर यानी जीवात्मा,
हो इक तन में दख़ल और इक से जुदा। 
तो साथ अपने ले जाये मन और हवास,
सबा जैसे ले जाये फूलों की बास। (८)

ज़बाँ कान मस आँख और नाक से,
इन्हें पांच और मन के अदराक से। 
यही रूह लज़्जत उड़ाते रहे,
सदा लुत्फ़-ए महसूस पाती रहे। (९)

मुसाहिर जो आया जो आ कर गया,
जो लुत्फ़ इन गुणों का उठा कर गया। 
नहीं इस को गुमराह पहचानते,
हैं ऐहल-ए बसीरत फ़कत जानते। (१०)

जो योगी रियाज़त में कोशां रहे,
तो वो भी उसे रूह में देख ले। 
वो मूऱख़ हैं कमजोर जिन के शऊर,
करे लाख कोशिश न पायें वो नूर। (११)

यह सूरज की ताबिश मेरा नूर हैं,
जहाँ जिस के जलवों से मामूर हैं। 
रहे चाँद रखशां मेरे नूर से,
तो आतिश दरखाशां मेरी नूर से। (१२)

जमीं में जो करता हूँ खुद को निहाँ,
तो क़ुव्वत से मेरी क़ुव्वत-ए जहाँ। 
बनूँ नूर-ए महताब की आब मैं,
तो करता हूँ पौदों को शादाब मैं। (१३)

हरारत हूँ मैं ही शिकम में निहाँ,
मैं हूँ जान वालों के तन में तवां। 
दरूँ-ओ बरूँ दम में आता हूँ मैं,
तो चारों गिजाये पचाता हूँ मैं। (१४)

हर इन्सां के दिल में हूँ पिनहाँ भी मैं,
कि हूँ हाफ़ज़ा इल्म नस्याँ भी मैं। 
मैं दाना हूँ रोशन हैं सब मुझ से वेद,
है वेदान्त मुझ से, मैं वेदों का भेद। (१५)

जहाँ में हैं दो तरह की हस्तियाँ,
है फ़ानी कोई और कोई जावदाँ। 
जहाँ की है मख़लूक फ़ानी तमाम,
अजल से जो बाक़ी है उस को दवाम। (१६)

वो परमेश्वर हैं वो परमात्मा,
जो है सब पे छाया हुआ ला-फ़ना। 
है बाक़ी व फ़ानी से बाला वो हक,
कि कायम हुए जिस से तीनों तबक। (१७)

जो फ़ानी हैं ज़ात उन से मेरी बुलन्द,
जो बाकी है बात उन से मेरी बुलन्द। 
है पुरुषोत्तम अपना जमाने में नाम,
यही नाम लें वेद-दां और अवाम। (१८)

जो पुरुषोत्तम इस तरह जाने मुझे,
दिल-ए हक नज़र से जो माने मुझे। 
तो भारत समझ बाख़बर है वही,
वो तन मन से करता है भक्ति मेरी। (१९)

सिखाया तुझे भारत ऐ पाकबाज़,
यह इल्मो का इल्म और राज़ो का राज़। 
जो समझे इसे साहिब-ए होश हो,
फ़रायज से अपने सुबुकदोष हो। (२०)


(पन्द्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)

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