ॐ श्री परमात्मने नमः
दैवसुरसम्पद्विभागयोग
सोलहवाँ अध्याय
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! सातवे अध्याय के पन्द्रहवे श्लोक में तथा नौवे अध्याय के ११वे तथा १२ वें श्लोक में भगवान् ने कहा है : 'आसुरी तथा राक्षसी प्रकृति धारण करनेवाले मूढ़ लोग मेरा भजन नहीं करते है लेकिन मेरा तिरस्कार करते है। ' और नौवे अध्याय के १३ वें और १४ वें श्लोक में कहा : 'दैवी प्रकृतिवाले महात्मा पुरुष मुझे सर्वभूतों का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम सहित सब प्रकार से हमेशा मेरा भजन करते हैं, लेकिन दूसरे प्रसंग चालू होने के कारण वहाँ दैवी और आसुरी प्रकृति के लक्षण नहीं किये है। फिर पंद्रहवे अध्याय के १९ वें श्लोक में भगवान् ने कहा : ' जो ज्ञानी महात्मा मुझ पुरुषोत्तम को जानते है वह सर्व प्रकार से मेरा भजन करते है।' इस विषय पर स्वाभाविक रीति से ही दैवी प्रकृतिवाले ज्ञानी पुरुष के तथा आसुरी प्रकृतिवाले अज्ञानी मुनष्य के लक्षण कौन-कौन से हैं यह जानने की इच्छा होती है। इसलिए भगवान् अब दोनों के लक्षण एवं स्वभाव का विस्तार पूर्वक वर्णन करने के लिए यह सोलहवाँ अध्याय आरम्भ करते है इसमें पहले तीन श्लोको द्वारा दैवी सम्पत्तिवाले सात्विक पुरुष के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते है।
श्रीभगवानुवाच ---
सुन अर्जुन हैं क्या देवताई सफ़ात,
दिलेरी व इल्म व अमल में सबात।
सख़ा, ज़ब्त, यज्ञ, दिल की पाकीजग़ी,
तलावत, रियाज़त, सलामत-रवी। (१)
अहिंसा, सदाकत करम तर्क-ए ऐश,
न फ़ितरत का चंचलपना और न तैश।
दिल-ए बे-हवस, पुरसकूँ, तबा नर्म,
न दिल तंग होना, निगाहों में शर्म। (२)
सबूरी, सफ़ा, जोर, उफ़व-ए ख़ता,
हसद से तकब्बर से रहना जुदा।
जब इन नेक वसफ़ो पे मायल है वो,
तो इन्सां फ़रिश्ता ख़सायल है वो। (३)
दो रंगी, गरूर व् नुमाइश ग़जब,
सुख़न तलख़ बाते जहालत की सब।
इन्हीं से उस इन्सां की पहचान है,
सदा से जो फ़ितरत का शैतान है। (४)
हैं नेको ख़्सायल, रहाई पसन्द,
शयाती की खिसलत से हो क़ैद-ओ बन्द।
तुझे रञ्ज-ओ ग़म क्या है पाण्डु के लाल,
कि फ़ितरत से तू है फ़रिश्ता खिसाल। (५)
जमाने में जितने भी इन्सां हुए,
फ़रिश्ते कोई, कोई शैतां हुए।
सुना है मुफ़स्सल फ़रिश्तो का हाल.
जो शैतां हैं सुन उन का अब हाल-चाल। (६)
ख़बासत के पुतले उन्हें क्या तमीज़,
यह करने की है, वो न करने की चीज़।
न सत उन के अन्दर न पाकीजपन,
मुअर्रा है शायस्तगी से चलन। (७)
वो कहते हैं झूठा है संसार सब,
न इस की है बुनियाद कोई न रब।
करें मरद-ओ जन मिल के जब मस्तियाँ,
उन्हीं मस्तियों से हो सब हस्तियाँ। (८)
जो है इन ख़यालो के बद-कुन बशर,
वो खूंखार बे-रूह कोतह नज़र।
अदू बन के दुनिया में आते रहे,
जहाँ में तबाही मचाते रहें। (९)
तकब्बर रिया और बनावट से काम,
वो तस्कीं न पाये हवस के गुलाम।
वो खायें फरेब-ए ख़्यालात-ए बद,
बदी में दिखाये सदा शद-ओ मद। (१०)
ग़म-ए बे-हिसाब उन को दिन हो कि रात,
मिले फ़िकर दुनियां से मर कर निज़ात।
है मक़्सूद उन का हवस रानियाँ,
हैं मदद्-ए नजर ऐश सामानियाँ। (११)
उम्मीदों के फंदों में अटके हुए,
ग़जब और शाहवत में लटके हुए।
बदी से वो दौलत कमाते रहें,
जो ऐश-ओ तरब में गवाँते रहें। (१२)
वो कहता है आज एक पाई मुराद,
तो कल दूसरी हाथ आई मुराद।
तो कल दौलत मेरी है, यह धन है मेरा,
मेरे पास ही ये रहेंगे सदा। (१३)
किया एक दुश्मन को मैंने हलाक,
करुँगा मैं औरों को अब जेर-ए ख़ाक।
सुखी हूँ कवि हाकम-ए पुरजलाल,
मज़े ले रहा हूँ कि हूँ बा-कमाल। (१४)
मैं धनवान मेरा घराना शरीफ़,
भला कौन होता है मेरा हरीफ़।
मैं लूँगा मज़े यज्ञ से और दान से,
यूं ही खाये धोखा वो अज्ञान से। (१५)
ख़यालो के फंदो में जकड़े हुए,
हैं तौहम के जालों में पकड़े हुए।
तैश से जी को लगाते हैं वो,
तो नापाक दोजख़ में जाते हैं वो। (१६)
वो मग़रूर जिद्दी हैं और खुद-परस्त,
वो दौलत के नशे में रहते हैं मस्त।
जो करते हैं यज्ञ भी तो बहर-ए नमूद,
नहीं पायें बन्द-ए रसूल-ओ काऊद। (१७)
वो गुस्ताख़ पुर कीना-ओ पुर-ग़रूर,
खुदी मस्ती-ओ तैश-ओ ताकत में चूर।
मैं खुद उन के तन में हूँ या ग़ैर के,
न ख़ैर उन से पहुंचे सिवा वैर के। (१८)
ये हासद कमीने जफ़ाकार लोग,
ये जिल्लत के पुतले ये खूँ-ख्वार लोग।
न जिल्लत से उन को निकालूँगा मैं,
शिकम में शयाती के डालूगा मैं। (१९)
शिकम में शयाती के हो कर मकीं,
ये बहके हुए मुझ तक आते नहीं।
ये अर्जुन जनम पर जनम पायेंगे,
ये गिरते ही गिरते चले जायेंगे। (२०)
जहन्नुम के हैं तीन दर ला-कलाम,
तमा, शाहवत और गुस्सा जिन के हैं नाम।
उन्हें छोड़ उन में न जाना कहीं,
न हस्ती को अपनी मिटाना कही। (२१)
तमोगुण को जाते हैं ये तीन दर,
जो इन से बचे वो रहे बे-ख़तर।
मिले उस को आनन्द कुन्ती के लाल,
उसी को मुयस्सर हो औज़-ए कमाल। (२२)
जो इन्सां चले शास्त्र के खिलाफ,
हवस के हो ताबा करे इन्हराफ।
मिले उस को राहत न औज़-ए कमाल,
रहे दूर उस से मुकाम-ए वसाल। (२३)
फ़कत शास्त्र को बना रहनुमा,
कि करना है क्या और न करना है क्या।
बस अब धर्म पर दिल दिये जा मुदाम,
अमल शास्त्र पर किये जा मुदाम। (२४)
(सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें