गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रयविभागयोग

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

सत्रहवाँ अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! सोलहवे अध्याय के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम भाव से आचरण करते हुए शास्त्रीय गुण तथा आचरण का वर्णन दैवी सम्पति के रूप में किया।  बाद में शास्त्र विरुद्ध आसुरी सम्पति का वर्णन किया।  उसके साथ आसुरी स्वभाववाले लोगों के पतन की बात कहीं, आत्मकल्याण के लिए जो साधन करता है वह परमगति को पाता है। करने योग्य अथवा न करने योग्य कर्मों की व्यवस्था दर्शानेवाले शास्त्रों के विधान के अनुसार ही तुझे निष्काम कर्म करने चाहिए। 
इस उपदेश से अर्जुन के मन में शंका हुई कि जो लोग शास्त्रविधि छोड़कर इच्छा अनुसार कर्म करते है उनके कर्म निष्फल हो वह तो ठीक है लेकिन ऐसे लोग भी है जो शस्त्र विधि न जानने से तथा दूसरे कारणों से शास्त्रविधि छोड़ते है, फिर भी यज्ञ पूजादि शुभ कर्म तो श्रद्धापूर्वक करते है, उनकी क्या स्थिति होती है ? यह जानने की इच्छा से अर्जुन भगवान से पूछते है : 

अर्जुन उवाच --
जो यज्ञ करने वाले हैं ऐहल-ए यकीं,
मगर शासतर पर जो चलते नहीं। 
तो फरमाये वो सतोगुण पे हैं,
कि आमल रजोगुण तमोगुण पे हैं  ?। (१)

श्रीभगवानुवाच --
कहा सुन के भगवान् ने यह सवाल,
मुताबिक है फ़ितरत के ईमाँ का हाल। 
कि ईमाँ के अन्दर भी हैं तीन गुण,
सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण तू सुन। (२)

कि जो जिस की फ़ितरत का आहंग है,
वही उस के ईमाँ का भी रंग है। 
कि इन्सां खुद ईमाँ की तफ़सीर है,
अक़ीदा ही इन्सां की तसवीर है। (३)

सतोगुण तो पूजेगे देवों को बस,
रजोगुण मगर यक्ष और राक्षस। 
तमोगुण के बन्दे हैं सब से अलग,
कि वो भूत प्रेतों को देते है यज्ञ। (४)

जो तप में उठाते हैं रंज-ओ तअब,
उलट शास्त्र के करें काम सब। 
वो मक्कार ख़ुद-बीं हैं और सख़त कोश,
भरी इन में है कूअत-ए हिरस-ओ जोश। (५)

करें वो दुःखी पांच तत्त का बदन,
मुझे भी जो इस तन में हूँ खेमा-जन। 
बाजाहिर तो हर चन्द इन्सां हैं वो,
जो अज़म उन का देखो तो शैतां  है वो। (६)

गिज़ा जिस के शायक हैं सब उन की सुन,
करें फ़र्क इस में यही तीन गुण। 
यही गुण उसी तरह देंगे बदल,
इबादत रियाज़त सख़ावत के फल। (७)

ग़िज़ा जिस से सेहत हो और जिन्दगी,
बढ़े जोर-ओ ताकत खुशी खुररमी। 
मुकव्वी हो, पुर-रोग़न और ख़ुशगवार,
सतोगुण के शायक को है इस से प्यार। (८)

सलोनी हो, खटटी कि कड़वी ग़िज़ा। 
जली, चटपटी, गर्म या बे-मज़ा। 
ग़िज़ा ऐसी खायें रजोगुण के लोग,
उन्हें रंज हो दुःख हो या तन का रोग। (९)

जो बासी हो बूदार गन्दी ग़िज़ा,
हो बद-जायका या हो झूठी ग़िज़ा। 
यह खाना तमोगुण के बन्दों का है,
कि खाना जो गन्दा है गंदो का है। (१०)

वही है सतोगुण का यज्ञ बिलजरूर,
न हो फल की ख़्वाहिश का जिस में फ़तूर। 
अमल शासतर की रियाजत से हो,
इबादत, इबादत की नीयत से हो। (११)

अगर यज्ञ किया फल की ख़्वाहिश के साथ,
ख़याल-ए नमूद-ओ नुमाइश के साथ। 
तो अर्जुन नहीं यह सतोगुण का यज्ञ,
रजोगुण का है यह रजोगुण का यज्ञ। (१२)

जो करते हैं यज्ञ शासतर के खिलाफ़,
न अन्न-दान जिस में न मंत्र हो साथ। 
न हो दक्षिणा और न ज़ौक-ए यकीं,
तमोगुण के यज्ञ के सिवा कुछ नहीं। (१३)

जो पूजा करे देवताओं की तू,
वो ब्राह्मण हों आलम हों या हों गुरु। 
अहिंसा तज़र् रुद, सफ़ा रास्ती,
बदन की रियाजत यही है यही। (१४)

सुख़न वो जो सच्चा हो और बे-ख़रोश,
मुफ़ीद-ए खलायक हो फिरदोस-ए गोश। 
मुकदद्स कुतब की तलावत मुदाम,
ज़बाँ की रियाजत इसी तलावत मुदाम। (१५)

सकूँ दिल  में हो लब पे हो ख़ामशी,
हलीमी ख़्यालो में पाकीज़गी। 
रहे नफ़्स पर ज़ब्त और दिल हो राम,
इसी शाय का मन की रियाजत है नाम। (१६)

जो यकदिल यकीं से इबादत करें,
वो तन-मन जबाँ से रियाजत करें। 
न हो फल की ख़्वाहिश पे आमदगी,
सतोगुण रियाजत यही है यही। (१७)

रियाज़त दिखावे की गर जी  भाये,
कि लोगों में इज़्ज़त हो पूजा कराये।
रियाज़त वो चञ्चल है नापायदार,
कर इस को रजोगुण रियाज़त शुमार। (१८)

वो तप जिस में जिद्दी उठाता है कष्ट,
वो तप जिस का मक्सद हो औरों का नष्ट।
जहालत का तप इस को गरदान तू,
तमोगुण रियाज़त इसे जान तू। (१९)

उसे जान कर फ़र्ज़ ख़ैरात दे,
जो हक़दार हो जिस से ख़िदमत न ले।
मुनासिब हो वक़्त और हो मौजूं मुकाम,
सतोगुण सख़ावत इसी का है नाम। (२०)

हो अहसाँ से बदले की ख़्वाहिश अगर,
सख़ावत में फल पर लगी हो नज़र।
अगर बे-दिली से कोई दान दे,
रजोगुण सख़ावत उसे जान ले। (२१)

अगर नामुनासिब है वक़्त और मुकाम,
उसे दान दें जिस को देना हराम।
जो ले उस की ज़िल्लत करें दिल दुखायें,
तमोगुण सख़ावत उसी को बतायें। (२२)

जो है ओ३म तत् सत् मुकद्दस कलाम,
सह गोना है यह ब्रह्म का पाक नाम।
इन्हीं से ब्राह्मण हुए आशकार,
इन्हीं से हुए यज्ञ और वेद चार। (२३)

इबादत सखावत रियाज़त के काम,
मुआफ़िक जो है शास्तर के तमाम।
वो सब ब्रह्मदाँ मरदम-ए पारसा,
हमेशा करें ओ३म से इब्तदा। (२४)

जहाँ में है मतलूब जिस को निजात,
समर से नहीं कुछ उसे इल्तफात।
इबादत रियाज़त सखावत करे,
मगर हर्फ़-ए तत् पहले मुंह से कहे। (२५)

हक़ीक़त यही है कि हक़ीक़त है सत्,
सदाकत यही है सदाकत है सत्।
कि दुनिया में जो भी भला काम है,
सुन अर्जुन कि उस का भी सत् नाम है। (२६)

यही सत् समझ उस अकीदत को जो,
इबादत रियाज़त सखावत में हो।
करें 'उस' खुदा के लिए जो भी काम,
तो उस काम का भी यही सत् है नाम। (२७)

हवन दान में हो अकीदत न शौक,
रियाज़त में ईमाँ अमल में न ज़ौक।
इन अफ़आल का फिर असत् नाम है,
यहाँ है न उन का वहाँ काम है। (२८)

(सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ)

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! यह अध्याय समाप्त हुआ।  

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