ॐ श्रीपरमात्मने नमः
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
तेरहवाँ अध्याय
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! बारहवें अध्याय के प्राम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण के उपासकों की श्रेष्टता के विषय में प्रश्न किया था। उसका उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने दूसरे श्लोक में संक्षिप्त में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता बताई और ३ से ५ श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप उसका फल तथा उसकी किलष्टता बताई हैं। उसके बाद भगवतभक्तो के लक्षणों का वर्णन करके अध्याय समाप्त किया लेकिन निर्गुण का तत्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधन विस्तारपूर्वक नहीं समझाये थे, इसलिए निर्गुण (निराकार) का तत्व अर्थात ज्ञानयोग का विषय ठीक से समझाने के लिए इस तेरहवें अध्याय का आरंभ करते हैं। अब आगे ---
श्रीभगवानुवाच ---
तुझे अब बताता हूँ कुन्ती के लाल,
कि यह जिस्म इक खेत की हैं मिसाल।
है इस खेत का राज़ जिस पर इयाँ,
कहें क्षेत्रज्ञ इस को सब राजदाँ। (१)
समझ खेत का राज-दाँ हूँ तो मैं,
कि हर खेत के दरमियाँ हूँ तो मैं।
जो यह खेत और क्षेत्रज्ञ का है इल्म,
मेरी राय में सब से आला है इल्म। (२)
सुन अर्जुन है क्या खेत क्या उस के गुन,
तग़ैय्युर हों कैसे कहा से यह सुन।
है कौन और क्या कुव्वत-ए राज-दाँ,
मैं करता हूँ अब मुक्तसर सा बयाँ। (३)
यह ऋषियों ने गाया कई रंग से,
बहुत मीठे छन्दो के आहंग से।
यह ब्रह्म-सूत्रों में भी मस्तूर है,
यही बा-दलील इन में मज़कूर हैं। (४)
अनासर, अहंकार, अक़ल-ए मुहीत,
यह दिल दस हवास और यह फ़ितरत बसीत।
यह आवाज़ मिस ज़ायका रङ्ग -ए बास,
करें जिन को महसूस पाँचों हवास। (५)
यह सुख-दुःख यह नफ़रत भी तरग़ीब भी,
ख़िरद-पायदारी भी तरकीब भी।
ये हैं खेत और उन की तबदीलियाँ,
इन्हीं का है यह मुक्तसर-सा बयाँ। (६)
मैं करता हूँ अब ज्ञान गुन शुमार,
ये हैं रास्ती, हलम, अजू इन्कसार।
अहिंसा भी और ख़िदमत-ए उस्ताद की,
दिली पुख़्तगी ज़ब्त पाकीज़गी। (७)
न होना सरोकार लज़्ज़ात से,
किनारा अहंकार की बात से।
यही ग़ौर करना कि लें छीन सुख,
जन्म, मौत, पीरी, मरज़, दर्द, दुःख। (८)
न वाबस्तगी रिश्ता-ओ बन्द से,
न घर से, न ज़न से, न फ़रज़न्द से।
तवाज़न से होना सकून-ओ करार,
गवारा हो सूरत कि हो ना-गवार। (९)
फ़कत धारणा मेरी भक्ति का योग,
दुई का न होना ज़रा दिल में रोग।
अलग रह के महसूस करना सरूर,
हजूम-ए खलनायक से होना नफ़ूऱ। (१०)
ख़याल-अध्यात्म का शाम-ओ सहर,
हक़ीक़त के मकसद पे रखना नजर।
यह इल्मों का है इल्म यह ज्ञान है,
ख़िलाफ़ इस के जो कुछ है अज्ञान है। (११)
सजवार-ए उरफाँ है वो पाक-ए जात,
कि है इल्म ही उस का आब-ए हयात।
वो बे-इब्तदा लम-यजल जी-हशम,
न सत या असत कह सकें जिस को हम। (१२)
उसी के हैं सब दस्त-ओ पा चारसू,
उसी का है रुख रुनुमा चारसू।
उसी की नज़र कान सर हर तरफ़,
मुहित-ए जहाँ सर-बसर हर तरफ़। (१३)
बजाहर नहीं गरचि उस के हवास,
दरखशां सफात-ए हवास उस के पास।
वो है बे-तअल्लुक मगर सब का रब,
गुणों से बरी और गुण उस में सब। (१४)
किसी शै में जुम्बश किसी में सकूँ,
वो मौजूद सब में दरूँ और बरूँ।
लतीफ़ ऐसा ऐहसास माज़ूर है,
वही है करीब और वही दूर है। (१५)
मुहाल उस की तकसीम ऐ-ज़ीशाऊर,
मगर उस का हर शै में हिस्सा जरूर।
सज़ावार-ए उरफ़ाँ वो परवरदिगार,
फ़ना-ओ बका का उसी पर मदार। (१६)
वही ज़ात-ए नूर आला नूर है,
जो तारीकियों से बहुत दूर है।
वो उरफ़ाँ का हासिल भी मकसूद भी,
वो उरफ़ाँ भी हर दिल में मौजूद भी। (१७)
तुझे मुख़्तसिर तौर पर कह दिया,
कि उरफ़ाँ-ओ मकसूद-ए उरफ़ाँ है क्या।
बताया तुझे खेत का मैंने हाल,
जो समझे मेरा भक्त पाये वसाल। (१८)
यह माया अनादि है ला-इब्तदा,
इसी तरह ला-इब्तदा आत्मा।
गुण अशिया के और उन की शकलें अनेक,
ये माया से जाहिर हुई एक-एक। (१९)
हवास-ओ बदन जो भी पैदा हुए,
यह माया के बाहिस हुएदा हुए।
जो सुख-दुःख का होता है ऐहसास सब,
यह एहसास है आत्मा के सबब। (२०)
कि माया में जब आत्मा हो मकीं ,
गुणों से हो माया के लज़्ज़त गज़ी।
गुणों से जो आलूदा हो बेश-ओ कम,
बुरी या भली जून में ले जनम। (२१)
महापुरुष तन में जो है जलवा-गर,
वो परमात्मा है महा-ईश्वर।
वो नाज़र भी है, कार-फ़रमा भी है,
वो लज़्ज़त-गज़ी भी सहारा भी है। (२२)
अगर आत्मा को कोई जान ले,
गुणों और माया को पहचान ले।
रहे जैसे चाहे वो जिस हाल में,
न आये तनासुख़ के जञ्जाल में। (२३)
कोई ध्यान से मन में डाले नजर,
तो देखे वो खुद आत्मा जलवा-गर।
कोई सांख्य के योग से देख ले,
कोई देख ले योग से कर्म के। (२४)
मगर इन से हैं बे-ख़बर भी कई,
करें सुन-सुना कर जो पूजा मेरी।
जो सुन लें उसी में वो सरशार हों,
फ़ना के समुन्दर से भी पार हों। (२५)
मिले खेत से खेत का राज-दाँ,
तो अर्जुन इसी से हो सब कुछ अयाँ।
किसी में है जुम्बश, किसी में कयाम,
इसी मेल से पाये हस्ती तमाम। (२६)
जो है कुछ नज़र तो उसी की नज़र,
नज़र में रहे जिस की परमेश्वर।
है सब जान वालों में जानी वही,
कि फ़ानी में है ग़ैर फ़ानी वही। (२७)
जो उस ज़ात-ए मुतलिक पे रक्खे यकीं ,
कि हर इक मकाँ में वही है मकीं।
करे खुद न वो आत्मा को तबाह,
कि उत्तम गति की यह अच्छी है राह। (२८)
जो समझे कि दुनिया की सब रेल-पेल,
है माया का करतब, है माया का खेल।
है ख़ुद आत्मा पुरसकूँ बे-अमल,
नज़र है उसी की नज़र बे-ख़लल। (२९)
जिसे आये कसरत में वाहदत नज़र,
कि हर रंग में है वही जलवा-गर।
जो वाहदत से कसरत का समझे ज़हूर,
ख़ुदा से हो वासिल वही बिलजरूर। (३०)
मकीं तन के अन्दर है परमात्मा,
अनादि गुणों से बरी ला-फ़ना।
अमल से वो फ़ारिग है कुन्ती के लाल,
अमल से न आलूदा हो ला-इज़ाल। (३१)
है आकाश दुनिया पे जैसे मुहीत,
मुजल्ला, मुसफ़्फ़ा कि है वो बसीत।
बदन में यूहीं आत्मा है मकीं,
मगर इस से आलूदा होती नहीं। (३२)
हो सूरज से जिस तरह रोशन जहाँ,
चमक उठे भारत ज़मी-आसमाँ।
इसी तरह खेतों पे छा जाये नूर,
जो हो खेत के राज़-दाँ का जहूर। (३३)
जो चश्म-ए-बसीरत से करता है ग़ौर,
कि खेत और है राज़-दाँ उस का और।
जो माया से दे हस्तियों को निजात,
बुलन्दी हासिल करें वस्ल-ए ज़ात। (३४)
(तेरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ)
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