शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

चौदहवाँ अध्याय : गुणत्रयविभागयोग

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 














गुणत्रयविभागयोग 
चौदहवाँ अध्याय 
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! तेरहवें अध्याय में 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' के लक्षण बताकर उन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान कहा और क्षेत्र का स्वरूप, स्वभाव विकार तथा उसके तत्वों की उत्पति का क्रम आदि बताया। २१ वें श्लोक में यह बात भी बताया कि पुरुष का फिर-फिर से अच्छी या अधम योनियों में जन्म पाने का कारण गुणों का संग ही है।  अब उस सत्व, रज और तम इन तीनो गुणों के भिन्न-भिन्न स्वरूप कौन से है, जीवात्मा को शरीर में किस तरह बांधते हैं, कौन से गुण के संग से किस योनि में जन्म होता है, गुणों से छूटने का उपाय कौनसा है, गुणों से छूटे हुए पुरुष का लक्षण तथा आचरण कैसा होता है..... इन सब बातो को जानने की स्वाभाविक ही इच्छा होती है। इसलिए उस विषय को स्पष्ट करने के लिए चौदहवे अध्याय का आरम्भ करते है। 
तेरहवे अध्याय में वर्णन किये गए ज्ञान को ज्यादा स्पष्टता पूर्वक समझाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण चौदहवे अध्याय के पहले श्लोक में ज्ञान का महत्व बताकर फिर से उसका वर्णन करते है। 

श्रीभगवानुवाच --
फिर अर्जुन से भगवान् बोले कि सुन,
जो ज्ञानों का है ज्ञान सुन उस के गुण। 
मुनि जिस को यह ज्ञान हासिल हुआ,
कमाल-ए फ़ज़ीलत से वासिल हुआ। (१)

जो लेते हैं इस ज्ञान का आसरा,
वो यक-रंग हो जायें मुझ से सदा। 
जो पैदा हो दुनिया तो आये न वो,
फ़ना हो तो तकलीफ़ पाये न वो। (२)

शिकम है मेरी कुदरत-ए कामला,
जो मैं तुख़्म डालूं तो हो हामला। 
यही है महाब्रह्म असल-ए हयात,
कि भारत इसी से हो कुल कायनात। (३)

किसी पेट से कोई पाये जनम,
हो अर्जुन कोई शक्ल, कोई शिकम। 
शिकम है महा-ब्रह्म मैं बाप हूँ,
कि बीज इस में मैं डालता आप हूँ। (४)

नमूदार माया से हों तीन गुण,
सतोगुण रजोगुण तमोगुण यह सुन। 
जो है ला-फ़ना रूह तन में मकीं,
ये गुण कैद करते हैं उस को वहीं। (५)

सतोगुण की फ़ितरत है पाकीजा नूर,
न ऐब इस में अर्जुन न कोई कसूर। 
करे रूह को शौक-ए राहत से कैद,
करे रूह को ज़ौक़-ए दानिश का सैद। (६)

रजोगुण की फ़ितरत है जज़्बात की,
है संगत का शौक उस की और तिशनगी। 
यह जौक-ए अमल का बनाती है जाल,
करे रूह को क़ैद कुन्ती के लाल। (७)

तमोगुण जहालत की औलाद है,
कब इस में मकीं तन का आज़ाद है। 
करे कैद धोखे से भारत इसे,
करे ख्वाब-ओ गफलत से ग़ारत इसे। (८)

सतोगुण का रहता है सुख से लगाओ,
रजोगुण का शौक-ए अमल है सुभाओ। 
तमोगुण  का पर्दा पड़े ज्ञान पर,
तो ग़फ़लत मुसल्लत हो इन्सान पर। (९)

सतोगुण का जिस वक्त बाला हो दस्त,
रजोगुण तमोगुण रहें इस से पस्त,
रजस से सतोगुण तमोगुण दबे,
तमस से सतोगुण रजोगुण घटें। (१०)

बदन है मकाँ और हवास उस के दर,
अगर दर है रोशन तो रोशन है घर। 
अगर ज्ञान का नूर हो जू-फ़िशां,
सतोगुण के ग़लबे का है यह निशाँ। (११)

रजोगुण का ग़लबा हो अर्जुन अगर,
तो हो जायें हिर्स-ओ हवा ज़ोर पर। 
तमन्ना हो कोशिश हो और पेच-ओ ताब,
रहे शौक-ए किरदार में इज़तराब। (१२)

तमोगुण जब इन्सां में हो ज़ोर पर,
तो हो मोह ग़ालिब कुरु के पिसर। 
अन्धेरा जहालत पे छा जायेगा,
जमूद  उस को ग़ाफ़िल बना जायेगा। (१३)

सतोगुण जो ग़ालिब हो इन्सान पर,
इसी हाल में मौत आये अगर। 
मकीं तन को पाये पवित्तर मुकाम,
वो सिद्धो की दुनिया में जाये मुदाम। (१४)

रजोगुण में इन्सां अगर जान दे,
जनम ऐहल-ए किरदार में आ के ले। 
तमोगुण में मर कर वो जिन्दों में आयें,
दरिंदो, परिंदों, चरिन्दों में आयें। (१५)

जो करता है इन्सां सतोगुण अमल,
तो पाता है पाकीजा और नेक फल। 
रजोगुण अमल से मिले पेच-ओ ताब,
तमोगुण अमल है जहालत का बाब। (१६)

सतोगुण से उरफ़ाँ का पैदा हो नूर,
रजोगुण से हिर्स-ओ हवा का ज़हूर। 
तमोगुण से धोखा भी गफ़लत भी हो,
तबीयत पे ग़ालिब जहालत भी हो। (१७)

सतोगुण से जायें सूयें आसमाँ,
रजोगुण से लटके रहें दरमियाँ। 
तमोगुण का गुण है जो सब से रज़ील,
यह पस्ती में डाले, यह कर दे ज़लील। (१८)

जो ऐहल-ए बसीरत हैं ऐहल-ए नज़र,
गुणों को समझते है जो कारगर।
मुझे मानते हैं गुणों से बुलन्द,
तो वासिल मुझी से हों वो अर्ज़मन्द। (१९)

बदन का है तीनों गुणों पर मदार,
मकीन-ए बदन गर करें उन को पार।
वो चखता है अमृत वो पाता है सुख,
न जीना न मरना न पीरी न दुःख। (२०)

अर्जुन उवाच ---
फिर अर्जुन ने पूछा कि ऐ किर्दगार !
वो इन्सां जो तीनों गुणों से हो पार।
चलन क्या है उस का इलामत क्या,
वो तीनों गुणों से हो क्योंकर रिहा ?। (२१)

श्रीभगवानुवाच ---
सुन अर्जुन सतोगुण से हासिल हो नूर,
रजोगुण से क़ुव्वत  तमस से फ़तूर।
है कामिल जिसे इन की चाहत नहीं,
जो हों तो उसे इन से नफ़रत नहीं। (२२)

जो इन्सां गुणों से रहे बे-ग़रज़,
न बेकल हो उन से न रक्खे ग़रज़।
जो समझे कि करते हैं गुण ही यह काम,
रहे पुरसकूँ खुद में कायम मुदाम। (२३)

जो सुख दुःख में यकसाँ जो है मुस्तकिल,
बराबर जिसे जऱ हो मिटटी कि सिल।
मुसावी पसन्दीदा-ओ ना-पसन्द,
हो तहसीं कि नफ़री वो  सब से बुलन्द। (२४)

न ज़िल्लत की परवाह न इज़्ज़त की भूख,
करे दोस्त दुश्मन से यकसाँ सलूक।
ग़रज़ त्याग दे मुझ पे सब कारोबार,
समझ लो गुणों से वो होता है पार। (२५)

जो ख़ादिम मेरा ही परस्तार है,
जो मेरी ही भक्ति में सरशार है।
हो तीनों गुणों से न क्यों पार वो,
है वस्ल-ए खुदा को सज़ावार वो। (२६)

मेरी जात ही ब्रह्मा का हैं मुकाम,
सबात-ओ बका का मुझी में कयाम।
मैं दीन-ए अज़ल का भी हूँ आसरा,
मेरी ज़ात-ए आली में राहत सदा। (२७)

(चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ)


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