ॐ श्री परमात्मने नमः
सांख्ययोग
दूसरा अघ्याय
जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय १ - ४० में पढ़ा अब आगे : हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनंत होती है। (४१) हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे है, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते है , जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम् प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नही है - ऐसा कहनेवाले है, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात देखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते है जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवम भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत - सी क्रियाओ का वर्णन करनेवाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं होती। (४२,४३,४४) हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करनेवाले है, इसलिए तू उन भोगो एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष -शोकादि द्वंदों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो (४५) सब और से परिपूर्ण जलाशय की प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानेवाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६) तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उन के फलो में कभी नही इसलिय तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। (४७) हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मो को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है। (४८) इस समत्व रूप बुद्धियोग सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतू बनानेवाले अत्यंत दीन है। (४९) समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा। यह समत्व रूप योग ही कर्मो में कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है (५०)
अब आगे -----
श्रीभगवानोवाच
कि सरशार-ए दानिश मुनि बा-अमल,
करें सब अमल छोड़ कर उन के फल।
जन्म के वो बन्धन से आज़ाद हैं,
सरूरे-अबद पा के दिल शाद हैं। (५१-श्लोक)
जो हो अक्ल आज़ाद जंजाल से,
निकल जाये तू मोह के जाल से।
सुनी बात से भी करे एहतराज़,
रहे अनसुनी से भी तू बे-न्याज़। (५२-श्लोक)
परेशां ख़याली से पाये सकूँ,
मुकद्दस ज़इफो का गुम हो फसू।
समाधि सी कायम हो दिल ज़ात में,
तो हासिल हो फिर योग हर बात में। (४३-श्लोक)
अर्जुन उवाच -----
फिर अर्जुन ने पूछा यह भगवान् से,
समाधि में दिल को जो कायम करे।
है उस कायम - उल अक्ल का क्या चलन,
हो क्या बूद-ओ बाश उसका कैसा सुखन ? (५४ - श्लोक)
श्रीभगवानुवाच ----
तो भगवान बोले जो हो महवे-जात,
जो मन से करे दूर सब ख्व्वाएशात।
रहे जिस का दिल रूह से मुतमैअन,
उसी फर्द को कायम-उल अक्ल गिन। (५५-श्लोक)
जो सुख से सुखी हो न दुःख से दुःखी,
न ख़ौफ उस को आये न गुस्सा कभी।
न जज़्बो के जंजाल में आये वो,
मुनि कायम - उल अक्ल कहलाये वो। (५६-श्लोक)
बुराई जो पहुँचे तो नालां न हो,
भलाई जो पाये तो शादाँ न हो।
किसी से तअल्लुक न उस को लगाओ,
यही कायम-उल अक्ल का है सुभाओ। (५७-श्लोक)
ज़रा-सा भी दे कोई कछुवे को छेड़,
तो लेता है फौरन सब आज़ा सुकेड़।
सुकेड़े जो हर शय से अपने हवास,
वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक-शनास। (५८-श्लोक)
करे नेमतें तर्क परहेज़गार,
मगर शोक-ए लज़्ज़त से हो बे-करार।
उसे तर्क लज़्ज़त की लज़्ज़त मिले,
जिसे दीद-ए बारी की दौलत मिले। (५९-श्लोक)
ख़िरद-मन्द के भी हवास - ओ ख्याल,
जो तेज़ी में आ जायें कुन्ती के लाल।
तो मन को भी वो छीन ले जायेगे,
करें लाख कोशिश न हाथ आयेंगे। (६०-श्लोक)
जय श्री कृष्ण मेरे प्यारे मित्रो ! आप को मेरा ये ब्लॉग कैसा लगा कृपा कमेंट करके बताये। आप के ह्रदय में प्रभु भक्ति सदैव बनी रहे। गीता किसी धर्म विशेष की बात न करके मानवता की बात करती है। दुःख की वो अवस्था जब मनुष्य को ये समझ पाना मुश्किल होता है वो क्या करे तब भगवान् के ये उपदेश हम को उस अवस्था से ऊपर उठाते है हमारे नकारत्मकता पर भगवान श्रीकृष्ण के सकरतात्मक विचार का नाम है गीता , हम इस शरीर से ऊपर उठकर उस परमसत्ता को जान सके उस का नाम है गीता, आप चाहए तो शेयर कर सकते है अपने मित्रों में , कल मुलाकात होगी, पढ़ना न भूले हमारी गीता हम सब की गीता, आप का दिन मंगलमय हो
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