सांख्ययोग
दूसरा अघ्याय
जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय के ५१ - ५२ में पढ़ा अब आगे : श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मो से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निरविकार परमपद को प्राप्त हो जाते है। (५१) जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा। (५२) भांति - भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी , तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा। (५३) अर्जुन बोले: हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? (५४) श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओ को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। (५५) दुःखो की प्राप्ति होने पर जिस के मन में उद्विग्न नहीं होता सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्प्रह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए है ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। (५६) जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस - उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। (५७) और जैसे कछुवा सब और से अपने अंगो को समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयो से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए। (५८) इन्द्रियों के द्वारा विषयो को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते है , परंतु उनमे रहने वाली आसक्ति निवृत नही होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है। (५९) हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इंद्रिया यत्त्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात हर लेती है। (६०)
अब आगे :
श्रीभगवानुवाच
हवास अपने रोक और लगा मुझ में दिल,
तू सरशार हो योग में मुतसइल।
रहें ज़ब्त में जिस के होश - ओ हवास,
वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक शनास। (६१-श्लोक)
लगाये जो महसूस अशिया से मन,
तअल्लुक बढ़े उन से और हो लगन।
तअल्लुक से ख़्वाहिश का हो फिर ज़ऊर,
हो ख़्वाहिश से गुस्से का दिल में फ़तूर। (६२- श्लोक)
हो गुस्से से फिर तीरगी रुनुमा,
असर तीरगी का है सहव - ओ ख़ता।
इसी सहव से अक़्ल हो पायमाल,
जो ज़ायल हुई अक़्ल आया ज़वाल। (६३-श्लोक)
जो करता है महसूस दुनिया की सैर,
न उल्फ़त किसी से है जिस को न वैर।
रहे नफ़स पर ज़ब्त जिस को मुदाम,
वो तस्कीन-ए दिल से रहे शादकाम। (६४-श्लोक)
दिले पुरसकूँ में कहाँ आए रंज,
कि दुःख दूर हो जायें मिट जाय रंज।
जो पैदा हो दिल में सकून-ओ करार,
वही अक़्ल कायम हो और उस्तवार। (६५-श्लोक)
न हो दिल पे काबू तो दानिश मुहाल,
ना हो दिल पे काबू तो भटके ख़याल।
परेशां ख़याली से आए न सुख,
जिसे सुख न आए सदा उस को दुःख। (६६-श्लोक)
हवास आदमी के भटकते हो गर,
हो इस हिरजा-गिरदी का दिल पर असर।
तो दिल अक़्ल को ले चले इस तरह,
कि तूफ़ा में किश्ती बहे जिस तरह। (६७-श्लोक)
जो इंन्सा हवास अपने रोके रहे,
न महसूस अशिया पे भटका फिरे।
तो सुन ले मेरी बात अर्जुन कवि,
कि है कायम-उल अक्ल इंसाँ वही। (६८-श्लोक)
जिसे रात कहती है दुनिया तमाम,
निगाहों में आरफ़ की दिन है मुदाम।
जो दिन अहले-आलम के नज़दीक है,
वो आरफ़ की शब है कि तारीक है। (६९-श्लोक)
समुन्दर में ग़ायब हों दरिया हज़ार,
रहेगा वो लबरेज़ और बा-वकार।
सब अरमाँ हों गुम जिन के सीने में बस,
वुही पाये राहत न एहले हवस। (७०-श्लोक)
जो इंसाँ करे ख़्वाहिशें दिल से दूर,
हवस का न हो जिस के दिल में फ़तूर।
न उस में खुदी हो न हो मेर-तेर,
सकूँ उस को हासिल है दिल उस का सेर। (७१-श्लोक)
यही है मकाम-ए वसाल - ए खुदा,
जहाँ आ के हो सब तुहम्मे फ़ना।
दम-ए वापसी भी जो यह ज्ञान हो,
तो हासिल उसे ब्रह्म निर्वाण हो। (७२-श्लोक)
अब आगे :
श्रीभगवानुवाच
हवास अपने रोक और लगा मुझ में दिल,
तू सरशार हो योग में मुतसइल।
रहें ज़ब्त में जिस के होश - ओ हवास,
वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक शनास। (६१-श्लोक)
लगाये जो महसूस अशिया से मन,
तअल्लुक बढ़े उन से और हो लगन।
तअल्लुक से ख़्वाहिश का हो फिर ज़ऊर,
हो ख़्वाहिश से गुस्से का दिल में फ़तूर। (६२- श्लोक)
हो गुस्से से फिर तीरगी रुनुमा,
असर तीरगी का है सहव - ओ ख़ता।
इसी सहव से अक़्ल हो पायमाल,
जो ज़ायल हुई अक़्ल आया ज़वाल। (६३-श्लोक)
जो करता है महसूस दुनिया की सैर,
न उल्फ़त किसी से है जिस को न वैर।
रहे नफ़स पर ज़ब्त जिस को मुदाम,
वो तस्कीन-ए दिल से रहे शादकाम। (६४-श्लोक)
दिले पुरसकूँ में कहाँ आए रंज,
कि दुःख दूर हो जायें मिट जाय रंज।
जो पैदा हो दिल में सकून-ओ करार,
वही अक़्ल कायम हो और उस्तवार। (६५-श्लोक)
न हो दिल पे काबू तो दानिश मुहाल,
ना हो दिल पे काबू तो भटके ख़याल।
परेशां ख़याली से आए न सुख,
जिसे सुख न आए सदा उस को दुःख। (६६-श्लोक)
हवास आदमी के भटकते हो गर,
हो इस हिरजा-गिरदी का दिल पर असर।
तो दिल अक़्ल को ले चले इस तरह,
कि तूफ़ा में किश्ती बहे जिस तरह। (६७-श्लोक)
जो इंन्सा हवास अपने रोके रहे,
न महसूस अशिया पे भटका फिरे।
तो सुन ले मेरी बात अर्जुन कवि,
कि है कायम-उल अक्ल इंसाँ वही। (६८-श्लोक)
जिसे रात कहती है दुनिया तमाम,
निगाहों में आरफ़ की दिन है मुदाम।
जो दिन अहले-आलम के नज़दीक है,
वो आरफ़ की शब है कि तारीक है। (६९-श्लोक)
समुन्दर में ग़ायब हों दरिया हज़ार,
रहेगा वो लबरेज़ और बा-वकार।
सब अरमाँ हों गुम जिन के सीने में बस,
वुही पाये राहत न एहले हवस। (७०-श्लोक)
जो इंसाँ करे ख़्वाहिशें दिल से दूर,
हवस का न हो जिस के दिल में फ़तूर।
न उस में खुदी हो न हो मेर-तेर,
सकूँ उस को हासिल है दिल उस का सेर। (७१-श्लोक)
यही है मकाम-ए वसाल - ए खुदा,
जहाँ आ के हो सब तुहम्मे फ़ना।
दम-ए वापसी भी जो यह ज्ञान हो,
तो हासिल उसे ब्रह्म निर्वाण हो। (७२-श्लोक)
अब मित्रों मैंने आप से पिछले रविवार कुछ प्रश्नों के उत्तर पूछे थे।
उनके उत्तर है :
उनके उत्तर है :
१) संजय को दिव्ये चक्षु किस ने दिए और क्यों ?
उत्तर : संजय को दिव्ये चक्षु वेदव्यास जी ने दिए, इसलिए दिए की महाभारत युद्ध क्षेत्र का आखों देखा हाल धृतराष्ट्र को बता सके।
उत्तर : संजय को दिव्ये चक्षु वेदव्यास जी ने दिए, इसलिए दिए की महाभारत युद्ध क्षेत्र का आखों देखा हाल धृतराष्ट्र को बता सके।
२) अर्जुन के सारथी का क्या नाम था ?
उत्तर: अर्जुन के सारथी का नाम श्री कृष्ण था।
उत्तर: अर्जुन के सारथी का नाम श्री कृष्ण था।
३) अर्जुन के बड़े भाई का क्या नाम क्या था ?
उत्तर : अर्जुन के बड़े भाई दो थे सबसे बड़े भाई का नाम युद्धिष्टर था और अर्जुन से बड़े भीम थे।
उत्तर : अर्जुन के बड़े भाई दो थे सबसे बड़े भाई का नाम युद्धिष्टर था और अर्जुन से बड़े भीम थे।
रविवार की छुट्टी का आंनद लीजिये और आज गीता का संख्या योग दूसरे अघ्याय का भी समापन हुआ।
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