बुधवार, 29 मार्च 2017

तीसरा अध्याय : कर्मयोग (श्लोक संख्या - 26-43)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


कर्मयोग 
तीसरा अध्याय 



जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब आगे ----

श्रीभगवानुवाच ----
अगर मूर्खों में अमल का हो जोश,
ज़ज्जब  न इन को करें एहले होश।
करें योग में रह के खुद कार - ओ बार,
यूँ ही उन को रक्खें वो मसरूफ़-ए कार। (२६-श्लोक) 

यह दुनिया के रौनक यह कामो की धुन,
सबब इन का असली है फितरत के गुन। 
मगर जिस के दिल में अहंकार है,
समझता है खुद को कि मुखतार है। (२७-श्लोक)

ज़बरदस्त अर्जुन हो जिस पर ऐया,
गुणों और कर्मों का राज़ - ए निहाँ। 
रहे बे - ताल्लुक कि दुनिया के काम,
गुनों पर गुनों के अमल का है नाम। (२८-श्लोक)

वो मूरख जो माया के धोखे में आये,
गुणों और अफ़्फ़ाल से दिल लगाये। 
वो जाहिल है और अक्ल में ख़ामकार,
न दुविधा में डाले उन्हें होशियार। (२९-श्लोक)

तू मन अपना परमात्मा में लगा,
खुदी-ओ हवस छोड़ मत जी जला। 
मुझे सौप दे काम सब बे-दरंग,
उठ अर्जुन उठ अर्जुन ! हो मसरूफ़ -ए जंग। (३०-श्लोक)

जो हैं मेरी तालीम पर कारबन्द,
करें नुक्ताचीनी को जो नापसंद। 
अक़ीदत से पाबन्द - अरशाद हैं,
वो कर्मों के बन्धन से आज़ाद हैं। (३१-श्लोक)

जो आमल नहीं मेरी तलकीन पर,
जो तकरार-ओ हुज्जत करें बेशतर। 
अलूम उन के हैं सब फ़रेब-ओ फ़तूर,
वो ज़ाहिल तबाही में आये ज़रूर। (३२-श्लोक)

कोई इल्म से लाख पुरनूर है,
मगर अपनी फ़ितरत से मज़बूर है। 
बशर अपनी फ़ितरत बदलता नहीं,
यहाँ जबर से काम चलता नहीं। (३३-श्लोक)

कभी दिल को रग़बत हो महसूस से,
कभी दिल को नफ़रत हो महसूस से। 
कभी राहज़न हैं दोनों न मरऊब हो,
तू ग़लबे से इन के न मग़लूब हो। (३४-श्लोक)

न ले गैर का धर्म गो खूब है,
कि धर्म अपना नाकिस भी मरगूब है। 
जो मरना पड़े धर्म पर अपने मर,
तुझे गैर के धर्म में है ख़तर। (३५-श्लोक)

अर्जुन उवाच --

फिर अर्जुन ने पूछा वो कूअत है क्या,
करे जिस से इंसा गुनाह-ओ ख़ता ?
ख़ता कोई करता नहीं चाह से,
वो सब कुछ करे जबर-ओ अकराह से ? (३६-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच ----

सुना यह तो भगवान् बोले कि बस,
ग़ज़बनाक दुश्मन है तेरी हवस। 
समझ यह रजोगुण कि औलाद है,
यह लोभी है, पापी है जल्लाद है।  (३७-श्लोक)

धुआँ रु-ए आतिश को जैसे छुपाये,
रुख़े शीशा पर जिस तरह जंग आये। 
छुपे पेट में माँ के जैसे जूनी,
हवस से छुपे ज्ञान तेरा यूंही। (३७-श्लोक)

हैं सब ज्ञान वालों की दुश्मन हवस,
यह पीछा न छोड़ेगी राहजन हवस। 
हवस आग ऐसी है कुन्ती के लाल,
कि इस आग का सेर होना मुहाल। (३९-श्लोक)

हवास - ओ दिल-ओ अक्ल ऐ नेक नाम,
हवस के लिए हैं ये तीनों मुकाम। 
यूही  ज्ञान इन्सा का रूपोश हो,
यूही तन का बाशी भी मदहोश हो। (४०-श्लोक)

इसी वास्ते अर्जुन ऐ हक-शनास,
तू कर पहले काबू में अपने हवास। 
हवस को फ़नाह कर कि है यह गुनाह,
करेगी यही इल्म-ओ उरफा तबाह। (४१-श्लोक)

हवास आदमी के हैं आला तमाम,
मगर उन से ऊँचा है मन का मुकाम। 
है मन से बड़ा मरतबा अक्ल का,
मगर अक्ल से बढ़ के है आत्मा। (४२-श्लोक)

समझ आत्मा अक्ल से है बुलन्द,
बना नफ़स को रूह का पायेबन्द। 
हवस है तेरी दुश्मन-ए ख़ौफनाक,
जबरदस्त अर्जुन इसे कर हलाक। (४३-श्लोक)


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! तीसरा अध्याय समाप्त हुआ।  इस अध्याय की हिंदी में व्याख्या कल मिलेगी। आप इस ब्लॉग इतना पसन्द कर रहे हैं इसके लिए आप का शुक्रिया इस देश में ही नहीं विदेश में भी पसन्द किया जा रहा है। इतना प्यार देने के लिए शुक्रिया।  आप इस भागवत गीता को शेयर भी कर सकते whatapp,facebook,twitter पर भी, आप के प्यार को नज़र में रखते हुए मैंने भगवतगीता को https://dharam84lakh.wixsite.com/bhagwatgeeta इस वेबसाइट पर भी लोग.इन कर सकते है। ये आप की अपनी साइट है शेयर करे और कृष्ण प्रेम में रंगे। 

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