शनिवार, 18 मार्च 2017

प्रथम अध्याय : "अर्जुनविषादयोग" (श्लोक संख्या - 41-49)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः। 



 "अर्जुनविषादयोग"
प्रथम अध्याय 

 जय श्री कृष्ण ! मेरे कृष्ण प्रेमी मित्रों ! अब तक आप ने पढ़ा। अर्जुन के भाव उदासीन होने लगे, हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नही देखता। (३१ ) हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य से कोई प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? (३२) हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े है। (३३) गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग है। (३४) हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनो लोको के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नही चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ? (३५) हे जनार्दन ! धृष्टराष्ट्र के पुत्रो को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आतातियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६) अतएव हे माधव ! अपने हे बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नही है, क्योकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होगे ?(३७) यधपि लोभ से भ्रष्ट चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नही देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नही विचार करना चाहिये। (३८,३९) कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते है, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। (४०)


अब आगे 

अर्जुन उवाच 


अधर्मी जो हो जाये सब मर्द-ओ-जन,
बिगड़ जाये फिर औरतों का चलन। 
रहें औरतें ही न जब पाकबाज,
तो वर्णों में बाकी कहाँ इम्तियाज।४१-श्लोक।


जो वर्णों में ऐसी खराबी मचाये,

वो और उन के कुनबे जहनुम को जाये।
बड़ो को न पिण्ड और न पानी मिले,
तनज्जल उन्हें जावदनी मिले। ४२-श्लोक। 



कबीलों को ग़ारत करें जो बशर,
हों वर्ण उन के पापो से ज़ेर - ओ ज़बर। 
वो ज़तो की रीते मिटाते रहे,
घरानों के दस्तूर जाते रहें। ४३-श्लोक 



किसी खानदाँ का जो हो धर्मनाश,

न रीतो की परवाह न रस्मो का पास। 
तो भगवान हम ने सुना है मुदाम,
जहनुम  के अन्दर है उन का मुकाम। ४४-श्लोक।



सद अफ़सोस हम खो के अक्ल - ए सलीम,
यह करने लगे है गुनाह-ए अज़ीम।
बहायेगे अफ़सोस अपनों का खूं,
कि है बादशाही का सिर में जुनूँ। ४५ -श्लोक


यह बेहतर है धृतराष्ट्र के पिसर,
उड़ा दे जो तलवार से मेरा सर। 
न हथियार लेकर लडूं उन के साथ,
बचाने को अपने उठाऊँ न हाथ। ४६ -श्लोक 


संजय उवाच -

यह कहते हुए हाल-ए दिल नागहाँ,
दिये फैंक अर्जुन ने तीर-ओ कमाँ। 
न रथ में खड़ा रह सका वो हज़ी,
जो दिल उस का बैठा तो बैठा वही। ४७ -श्लोक 
★★★★★★★★★★★★★★★★★


इसी के साथ मित्रों पहला अध्याय सम्पूर्ण हुआ। पर अभी गीता बाकि है, अर्जुन का ये उदासीन भाव क्या दूर हो पाया।  उस का युद्ध समय पर यू कायरों वाली बाते करना समय सार्थक था। कल अगला अध्याय शुरू करने से पहले एक ब्लॉग में आप से कुछ प्रश्न होगी मेरे आप जवाब दोगे ये आशा करता हूं। 
आपका अपना कृष्ण प्रेमी संजय भाटिया। 



प्यारे मित्रों ! इस ब्लॉग को आप इतना प्यार दे रहे है इस के लिए धन्यवाद आप सब का। आज का ये ब्लॉग कैसा लगा आप को कमेंट करना न भूले। कल मुलाकात होगी मित्रों । आप के ह्रदय में कृष्ण भक्ति सदैव बनी रहे इसी के साथ आप सब को जय श्री कृष्ण आप का दिन मंगलमय हो। आप भी अपनी राय मुझ तक कमेंट कर के पुहँचा सकते है।

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