शुक्रवार, 31 मार्च 2017

चौथा अध्याय : ज्ञानकर्मसंन्यासयोग (श्लोक संख्या - 1-26)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


ज्ञानकर्मसंन्यासयोग  
चौथा अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब तक मित्रों आप ने पढ़ा भगवान श्रीकृष्णजी ने तीसरे अध्याय में कर्मयोग को बताया अब आगे ----

श्रीभगवानुवाच - 

यही योग जिस को नहीं है फ़नाह,
विवस्वान को मैंने पहले दिया। 
मनु ने लिया फिर विवस्वान से,
मनु से लिया इस को इक्ष्वाकु ने। (१)

यही नस्ल-दर आया है योग,
यही राज ऋषियों ने पाया है योग। 
मगर अब है दौर-ए ज़मां से यह हाल,
कि इस योग को आ गया है ज़वाल।(२)

यही योग का आज राज़-ए कदीम,
बताया है मैंने तुझे ऐ नदीम। 
किया तुझ पे सर्र-ए खफ़ी आशिकार,
कि तू भक्त मेरा है और दोस्तदार। (३)

अर्जुन उवाच ---
कहा सुन के अर्जुन ने सुनिये हजूर,
जहाँ में हुआ आप का अब ज़हूर। 
विवस्वान पहले ही मोजूद था,
तो योग आप से उस ने क्योंकर लिया ? (४)

श्रीभगवानुवाच --

सुन अर्जुन हुए हैं यहाँ बार-बार,
तुम्हारे हमारे जन्म बेशुमार। 
मुझे हाल इन सब का मालूम है,
तेरा हाफ़जा इन से महरूम है। (५)

मेरी ज़ात है मालिक-ए कायनात,
न इस को वलादत न इस को ममात। 
जो काम अपनी फ़ितरत को लाता हूँ मैं,
ज़हूर अपनी माया से पाता हूँ मैं। (६)

तनज्ज़ल पे जिस वक्त आता है धर्म,
अधर्म आ के करता है बाज़ार गर्म। 
यह अन्धेर जब देख पाता हूँ मैं,
तो इंसाँ की सूरत में आता हूँ मैं। (७)

भलों को बुरो से बचाता हूँ मैं,
बुरों को जहाँ से मिटाता हूँ मैं। 
जड़े धर्म की फिर जमाता हूँ मैं,
अयाँ हो के युग-युग में आता हूँ मैं। (८)

जो अर्जुन समझ लें इन असरार को,
खुदाई जनम और किरदार को। 
वो मर कर मेरे वस्ल से शाद है,
तनासुख़ के चक्कर से आज़ाद है। (९)

कई महव मुझ में मुझी में मकीम,
तआल्लुक से आज़ाद बेरंज - ओ बीम। 
सदा ज्ञान तप से करे पाक दिल,
मेरी ज़ात आली में जाते हैं मिल। (१०)

मेरे पास जिस राह से लोग आयें,
मैं राज़ी हूँ अर्जुन मुराद अपनी पायें। 
इधर से चलें या उधर से चलें,
मेरे सब हैं रस्ते जिधर से चलें। (११)

जो कर्मों के फल के हैं तालिब यहाँ,
करें देवताओं पे कुरबानियाँ। 
कि फ़िल्फ़ौर दुनिया में इन्सान की,
मुरादें हो कर्मों से हासिल सभी। (१२)

बनाये हैं मैंने जो ये वरन चार,
ये कर्मों गुणों की है तकसीम-ए कार। 
मैं खालिक हूँ इन का मगर बिलज़रूर,
अमल से बरी हूँ तग़य्युर से दूर। (१३)

न कर्मों का होता है मुझ पर असर,
न कर्मों के फल पर है मेरी नज़र। 
जो ऐसा समझता मुझे पाक है,
वो कर्मों के बन्धन से बेबाक है। (१४)

सलफ़ के बुजुर्गों  ने पाकर यह बात,
किये काम दुनिया में बहर - ए  निजात।
इसी तरह तू भी किए जा अमल, 
बुजुर्गों के नक्शे कदम ही पे चल। (१५)

सुन अब मुझ से कर्मों अकर्मों का राज,
न दाना भी जिन में करे इमतियाज़। 
बताता हूँ कर्मों का रस्ता तुझे,
जो आज़ाद कर देगा संसार से। (१६)

यह लाज़िम है कर्मों को पहचान तू,
बुरे कर्म जो हैं उन्हें जान तू। 
अकर्मों को कर्मों से कर ले जुदा,
कि गहरा है कर्मों का रस्ता बड़ा। (१७)

वो इंसाँ जो कर्मों में देखे अकर्म,
अकर्म उस को आये नजर ऐन कर्म। 
वो लोगों में दाना है और होशियार,
वो योगी है गो सब करे कार-ओ बार। (१८)

न ख़्वाहिश की हो काम में जिस के लाग,
जला दे अमल जिस के उरफ़ा की आग। 
अमल में समर से जो हैं बेनियाज़,
है दाना वूही पेश दाना - ए राज। (१९)

अमल में नहीं जिस को फल से लगन,
दिल - ए मुतमैयन में रहे जो मगन। 
सहारा किसी का न ले एक पल,
अमल उस का है ऐन तर्क - ए अमल। (२०)

उम्मीद-ओ हवस से न है कुछ लगन,
जो काबू है मन तो कब्ज़े में तन। 
जो तन काम में मन रहे ध्यान में,
तो पल भी न गुजरेगी इस्यान में। (२१)

जो मिल जाये लेकर वही शाद है,
न हासद न पाबन्दे इज़दाद है। 
बराबर है जिस के लिए जीत-हार,
अमल में अमल का नहीं वो शिकार। (२२)

तअल्लूक से जो पाक आज़ाद है,
जो उरफाँ में कायम है दिल शाद है। 
अमल यज्ञ की खातिर करे जो सदा,
तो कर्म  होते हैं सारे फ़ना। (२३)

जो क्रिया में देखे ख़ुदा ही ख़ुदा,
है अग्नि ख़ुदा और हवि भी ख़ुदा। 
हवन और हवन करने वाला वो ही,
ख़ुदा से जुदा वो न होगा कभी। (२४)

कई कर्म योगी हैं इन से अलग,
वो बस देवताओं को देते हैं यज्ञ। 
जला कर कई आतिश-ए कुबरिया,
करें यज्ञ को इस यज्ञ के अन्दर फ़ना। (२५)

कई ज़ब्त दिल से जलाये मुदाम,
समाअत -ए  हसीं दूसरी भी तमाम। 
कई हिस की आतिश में कर दें फ़ना,
सब आशिया - ए महसूस मिसल - ए सदा। (२६)




जय श्रीकृष्ण मित्रों !  













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