रविवार, 19 मार्च 2017

प्रथम अध्याय : "अर्जुनविषादयोग"



 ॐ श्रीपरमात्मने नमः। 
 "अर्जुनविषादयोग"

प्रथम अध्याय 

 जय श्री कृष्ण ! मेरे कृष्ण प्रेमी मित्रों ! अब तक आप ने पढ़ा।  पहले अध्याय के श्लोकों में  धृतराष्ट्र बोले : हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?(१-श्लोक)संजय बोले: उस समय राजा दुर्याधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवो की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।(२-श्लोक)हे आचार्य ! आप के बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये। (३-श्लोक) इस सेना में बड़े-बड़े धनुषयवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिमोज और मनष्यों में श्रेष्ट शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचो पुत्र ये सभी महारथी है।(४,५ ,६-श्लोक) हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लीजिये।  आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो - जो सेनापति है, उनको बतलाता हूँ। (७ श्लोक) आप, द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और सग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत का पुत्र भुरिश्रवा। (८- श्लोक)और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्रो - शास्त्रो से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर है। (९ -श्लोक)भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना जीतने में सुगम है।  (१०-श्लोक) इसलिए सब मौर्चो पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करे। (११-श्लोक) कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। (१२-श्लोक) इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृन्दग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे।  उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। (१३ -श्लोक) इसके अनन्तर सफेद घोड़ो से युक्त उत्तम रथ में बेठै हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये। (१४-श्लोक) श्रीकृष्ण महराज ने पंचजन्य नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पुण्ड्र नामक महाशंख बजाया। (१५-श्लोक) कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ट्रर ने अनन्तविजयनामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पकनामक शंख बजाए। (१६ -श्लोक) श्रेष्ट धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टधुम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रुपदी के पाचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन सभी ने, हे राजन! सब ओर से अलग अलग शंख बजाये। (१७-१८ श्लोक)और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुजते हुए ध्रतराष्ट्र के अथार्थ आपके पक्ष वालो के ह्रदय विदीर्ण कर दिये।हे राजन ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियो को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकरबोला (१९-२० श्लोक)कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियो को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ह्रषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा : हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये। (२१) और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी युद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये। (२२) दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए है, इन युद्ध करनेवालों को मैं देखूगा। (२३) संजय बोले : हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं  के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओ के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवो को देख (२४ /२५ ) इस के बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ - चाचो को, दादों -परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रो को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुह्र्दो को भी देखा। उन उपस्तिथ सम्पूर्ण बंधुओ को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले (२६,२७) अर्जुन बोले : हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे है और मुख सूखा जा रहा है तथा शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है। (२८, २९) हाथ में गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित - सा हो रहा है, इस लिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नही हूँ (३०)  हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नही देखता। (३१ ) हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य से कोई प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? (३२) हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े है। (३३) गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग है। (३४) हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनो लोको के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नही चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ? (३५) हे जनार्दन ! धृष्टराष्ट्र के पुत्रो को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आतातियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६) अतएव हे माधव ! अपने हे बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नही है, क्योकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होगे ?(३७) यधपि लोभ से भ्रष्ट चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नही देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नही विचार करना चाहिये। (३८,३९) कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते है, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। (४०) हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती है और हेवाष्णैय ! स्त्रियो के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उन्पन्न होता है. (४१) वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है।  लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले यानि श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पित्ररलोग भी अधोगति को प्राप्त होते है। (४२) इन वर्णसंकरकारक दोषों  कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाता है (४३) हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए है। (४४) हा ! शोक हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए है , जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्धत हो गए है।( ४५) यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवाले को शास्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा। ४६) संजय बोला : रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कह कर, बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग पर बैठ गए। (४७)

अब मित्रों मैं आप से कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहोगा मुझ को आशा है आप उत्तर देगे क्या आप बतायगे आप मुझ को बतायगे।  
१) संजय को दिव्ये चक्षु किस ने दिए और क्यों ?
२) अर्जुन के सारथी का क्या नाम था ?
३) अर्जुन के बड़े भाई का क्या नाम क्या था ? 


इन प्रश्नों के उत्तर दे कर अपनी अध्यात्म यात्रा का शुभारंभ कीजिये।  आज रविवार की छुट्टी का आंनद लीजिये और अर्जुन विषाद योग को पढ़ कर उस के समाधान के लिए आगे किस प्रकार अर्जुन के विषाद  मुक्ति मिलती है पढ़ते रहिये हमारे ब्लॉग 

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