सांख्ययोग
दूसरा अघ्याय
जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय १ -३० में पढ़ा अब आगे : श्री भगवान अर्जुन से कहते है तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नही है अर्थात तुझे भय नही करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नही है। (३१) हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते है। (३२) किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नही करेगा तो स्वधर्म और के कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। (३३) तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहनेवाली अपकीर्ति का भी कथन करेगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। (३४) और जिनकी दृस्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा। वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे। (३५) तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेगे। उससे अधिक दुःख और क्या होगा। (३६) या तो तू युद्ध में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा। (३७) जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा इस प्रकार करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा। (३८) हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मो के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा। (३९) इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नही है और उल्टा फलरूप दोष भी नही है , बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म -मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है। (४०) अब आगे ----
भगवानोवाच ---
जो अक्ले-इरादे रहे मुस्तकिल,
तो यकसू हो और पुख़ता इंसाँ का दिल।
इरादा न हो जिस का सुलझा हुआ,
रहेगा ख़यालो में उलझा हुआ। (४१ - श्लोक)
जो वेदों के लफ्ज़ों से है शादमाँ,
वो नादाँ करे बस गुल-अफशानियॉ।
उन्हें कर्मकाण्डों से है आगही,
वो कहते हैं सब कुछ यही है यही। (४२-श्लोक)
जन्म को बताये वो कर्मो का फल,
सिखाये जऱ-ओ-एश के सौ अमल।
वो खुद काम हैं कामनाओं में मस्त,
वो जन्नत के तालिब है जन्नत परस्त। (४३-श्लोक)
फंसे जिन के दिल ऐसे अफ्वाल में,
घिरे एश - ओ दौलत के जंजाल में।
समाधि नहीं दिल पे काबू नहीं,
कि अक्ल - ए इरादा ही यकसू नहीं। (४४-श्लोक)
हैं वेदों लिखे हुए तीन गुण,
तू बाला हो इन से न रख इन की धुन।
रख इज्दाद का और न हासिल का ग़म,
हो मैहव आत्मा में सदाकत पे जम। (४५-श्लोक)
वो इन्सा जिसे ब्रह्म का ज्ञान है,
उसे कर्म-काण्डों पे कब ध्यान है।
उसे वेद महज़ एक तालाब है,
जहाँ सारे आलम में सैलाब है। (४६-श्लोक)
तुझे काम करना है ओ मरदेकार,
नहीं उस के फल पर तुझे इखत्यार ।
किये जा अमल और न ढूंढ उस का फल,
अमल कर, अमल कर न हो बे-अमल। (४७-श्लोक)
रख अर्जुन तू दिल योग में उस्तवार,
तू कर बे - लगावट अमल इखत्यार ।
न जीते की शादी न हारे का सोग,
कि दिल के तवाजन का है नाम योग। (४८-श्लोक)
सुन अब अक्ल के योग का हाल सुन,
बहुत पस्त हैं जिस से कर्मो के गुण।
बना अक्ल ख़ालिस को तू दस्तगीर,
रहें फल के तालिब ज़लील-ओ हक़ीर। (४९-श्लोक)
लगी है जिसे अक्ल - ए ख़ालिस की धुन,
यही छोड़ देगा वो सब पाप पुन।
कमा योग तन मन में बस जाऐ योग,
अमल में हुनर हो तो कहलाये योग। (५०-श्लोक)
जय श्री कृष्ण मेरे प्यारे मित्रो ! आप को मेरा ये ब्लॉग कैसा लगा कृपा कमेंट करके बताये। आप के ह्रदय में प्रभु भक्ति सदैव बनी रहे। गीता किसी धर्म विशेष की बात न करके मानवता की बात करती है। दुःख की वो अवस्था जब मनुष्य को ये समझ पाना मुश्किल होता है वो क्या करे तब भगवान् के ये उपदेश हम को उस अवस्था से ऊपर उठाते है हमारे नकारत्मकता पर भगवान श्रीकृष्ण के सकरतात्मक विचार का नाम है गीता , हम इस शरीर से ऊपर उठकर उस परमसत्ता को जान सके उस का नाम है गीता, आप चाहए तो शेयर कर सकते है अपने मित्रों में , कल मुलाकात होगी, पढ़ना न भूले हमारी गीता हम सब की गीता, आप का दिन मंगलमय हो
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भगवानोवाच ---
जो अक्ले-इरादे रहे मुस्तकिल,
तो यकसू हो और पुख़ता इंसाँ का दिल।
इरादा न हो जिस का सुलझा हुआ,
रहेगा ख़यालो में उलझा हुआ। (४१ - श्लोक)
जो वेदों के लफ्ज़ों से है शादमाँ,
वो नादाँ करे बस गुल-अफशानियॉ।
उन्हें कर्मकाण्डों से है आगही,
वो कहते हैं सब कुछ यही है यही। (४२-श्लोक)
जन्म को बताये वो कर्मो का फल,
सिखाये जऱ-ओ-एश के सौ अमल।
वो खुद काम हैं कामनाओं में मस्त,
वो जन्नत के तालिब है जन्नत परस्त। (४३-श्लोक)
फंसे जिन के दिल ऐसे अफ्वाल में,
घिरे एश - ओ दौलत के जंजाल में।
समाधि नहीं दिल पे काबू नहीं,
कि अक्ल - ए इरादा ही यकसू नहीं। (४४-श्लोक)
हैं वेदों लिखे हुए तीन गुण,
तू बाला हो इन से न रख इन की धुन।
रख इज्दाद का और न हासिल का ग़म,
हो मैहव आत्मा में सदाकत पे जम। (४५-श्लोक)
वो इन्सा जिसे ब्रह्म का ज्ञान है,
उसे कर्म-काण्डों पे कब ध्यान है।
उसे वेद महज़ एक तालाब है,
जहाँ सारे आलम में सैलाब है। (४६-श्लोक)
तुझे काम करना है ओ मरदेकार,
नहीं उस के फल पर तुझे इखत्यार ।
किये जा अमल और न ढूंढ उस का फल,
अमल कर, अमल कर न हो बे-अमल। (४७-श्लोक)
रख अर्जुन तू दिल योग में उस्तवार,
तू कर बे - लगावट अमल इखत्यार ।
न जीते की शादी न हारे का सोग,
कि दिल के तवाजन का है नाम योग। (४८-श्लोक)
सुन अब अक्ल के योग का हाल सुन,
बहुत पस्त हैं जिस से कर्मो के गुण।
बना अक्ल ख़ालिस को तू दस्तगीर,
रहें फल के तालिब ज़लील-ओ हक़ीर। (४९-श्लोक)
लगी है जिसे अक्ल - ए ख़ालिस की धुन,
यही छोड़ देगा वो सब पाप पुन।
कमा योग तन मन में बस जाऐ योग,
अमल में हुनर हो तो कहलाये योग। (५०-श्लोक)
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