रविवार, 9 जुलाई 2017

गुरु पूर्णिमा महोत्सव

ॐ गं गणपतये नमः 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर, विश्व के समस्त गुरुजनों को मेरा शत् शत् नमन। गुरु के महत्व को हमारे सभी संतो, ऋषियों एवं महान विभूतियों ने उच्च स्थान दिया है।संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान)एवं ‘रु’ का अर्थ होता है प्रकाश(ज्ञान)। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं।

सम्पूर्ण भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रद्धाभाव व उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। यह पर्व जीवन में गुरु की महत्ता व महर्षि वेद व्यास को समर्पित है। भारतवर्ष में कई विद्वान गुरु हुए हैं, किन्तु महर्षि वेद व्यास प्रथम विद्वान थे, जिन्होंने सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) के चारों वेदों की व्याख्या की थी। सिख धर्म में भी गुरु को भगवान माना जाता इस कारण गुरु पूर्णिमा सिख धर्म का भी अहम त्यौहार बन चुका है।

सिख धर्म केवल एक ईश्वर और अपने दस गुरुओं की वाणी को ही जीवन का वास्तविक सत्य मानता है। सिख धर्म की एक प्रचलित कहावत निम्न है:
‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पांव, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए'।।
गुरु पूर्णिमा आध्यात्मिक सम्बन्ध याद करने के लिए नियत है गुरु पूर्णिमा के दिन परमात्मा वहुत खुश होते है उस दिन हर दरवाजा भक्त के लिए खुला होता है वो जो चाहे परमेश्वर से मांग सकता है उस दिन भक्त के द्वारा लिया हुआ हर एक संकल्प पूर्ण होता है और कोई विरोध नहीं होता, उस दिन भक्त के द्वारा किया गया  भजन, पाठ, आराधन, जप, ध्यान, लाखो गुना फल देता है गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व अपने गुरु को शुक्रिया करने, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए भी है कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए समर्पण एक विधि है इस दिन शिष्य अपने सद्गुरु को समर्पण के द्वारा शुक्रिया कहता है समर्पण तीन तरह से कर सकते है
(1)तन का समर्पण –  शारीरिक सेवा दे कर
(2) मन का समर्पण – जप ध्यान आराधन करके

(3) धन का समर्पण – अपने धन में से कुछ समर्पण करके

शास्त्र कहते है कि इस दिन शिष्य जो कुछ समर्पण करता है उसका लाखो गुना वापस पाता है जैसे अगर शारीरक सेवा द्वारा समर्पण किया जाये तो शिष्य की शारीरक स्वस्थता और सामर्थ्य बढ़ता है, मन का समर्पण करने से मन बलवान होता है,और धन का समर्पण करने से एक तो धन पवित्र होता है, और दूसरा उसमे कई गुना वृद्धि होती है, तो ये महत्वपूर्ण दिन व्यर्थ मत जाने दीजियेगा कुछ न कुछ समर्पण जरूर कीजियेगा।

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! 

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल : चातुर्मास कहलाता है (भाग - दूसरा)

ॐ गं गणपतये नमः 



जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आप ने शयनी एकादशी के विषय में पढ़ा। देवशयनी एकादशी के साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है। कल इस विषय के बारे में पढ़ा। आज आगे बढ़े
इन चार महीनों के दौरान मनोरम माहौल और प्रफुल्लित चित्त के साथ प्रकृति के शांत वातावरण में ईश्वर की आराधना पर खासतौर से बल दिया गया है। व्यक्ति के किसी मांगलिक कार्यक्रमों में लिप्त नहीं होने से वह बाहरी जवाबदारियों से मुक्त होकर ईश्वर की भक्ति में ध्यान लगा सकता है। चातुर्मास के चार महीनों यानी सावन, भादौ, आश्विन और कार्तिक माह में खाने-पाने और व्रत व उपवास की सलाह दी गई है। चातुर्मास में व्यक्ति की पाचनशक्ति कमजोर पड़ जाती है, इसलिए इस संपूर्ण महीने में व्यक्ति को व्रत व उपवास करने की सलाह दी गई है। खासकर कि इस समय के दौरान पड़ने वाली तमाम एकादशियों में निर्जला उपवास किया जाता है। यदि सभी एकदशियों में निर्जल उपवास नहीं हो पाए तो कम से कम तीन एकादशी (देवशयनी, जलजिलनी और देव उठनी एकादशी) के दिन निर्जल उपवास जरुर करना चाहिए एेसा संतजनों का कहना है।


गुरु पूर्णिमा, हरियाली तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, विजयदशमी, अहोई अष्टमी, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज, छठ पूजा और नदी स्नान के विशेष महत्व वाली कार्तिक पूर्णिमा ऐसे ही मौके हैं। चातुर्मास में 'पितृपक्ष' का पखवाड़ा और नवरात्र के नौ दिन ऐसे अवसर होते हैं, जब स्वास्थ्य और अध्यात्म दोनों की दृष्टि से आम गृहस्थ को विशेष निर्देश की जरूरत होती है।


गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्‍व

गुरु का स्थान गोविंद से आगे यूं ही नहीं माना गया। चतुर्मास में भूलोक की पालना का भार गुरुवर्ग के भरोसे छोड़कर ही भगवान श्री विष्णु शयन करने पाताल लोक जाते हैं। इसीलिए गुरु भी इस चतुर्मास में कहीं नहीं जाते। शिष्यों को पूर्व सूचना के साथ पूर्व निर्धारित एक ही स्थान पर रहते हैं। इसीलिए चतुर्मास की पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाता है। शिष्य गुरु को साक्षात अपने सामने बिठाकर पूजा करते हैं। (गुरु पूर्णिमा का वर्णन अगले ब्लॉग में करुँगा)

आयुर्वेद की दृष्टि से चातुर्मास : आयुर्वेद की दृष्टि से भी उपवास के लिए यह समय उत्तम माना गया है। वजह यह है कि श्रावण के महीने में हरी सब्जियों में सूक्ष्म जंतुओं के होने की संभावनाए बहुत होने से अंकुरित चीजों को खाने की सलाह दी जाती है। भादों की बरसात के बाद जलवायु परिवर्तन की वजह से एकाएक गर्मी बढ़ जाती है। एेसे में यदि इंसान दही का सेवन करता है तो पित्त या अम्ल की समस्या का शिकार हो सकता है। इससे बचने के लिए दही को खाने के लिए वर्जित कहा गया है। इसके अलावा, इन आषाढ़ माह में दूध पीने से पानी से पैदा होने वाले रोग और कार्तिक माह में दाल को सेवन करने से अपच की समस्या हो सकती है, इसलिए इस दौरान इन आहार का सेवन करने की मनाही की गई है। 
चातुर्मास के दौरान श्रावण महीने में विविध त्यौहारों में उपवास के अलावा भादो में पितृ तर्पण  और आषाढ़ में नवरात्रि की पूर्जा-अर्चना-अनुष्ठान और उपवास द्वारा धार्मिक और आध्यात्मिक संतुलन बनाने के साथ-साथ शारीरिक आरोग्यता की दिशा में भी हमारे शास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन किया ग
या है। 


बुधवार, 5 जुलाई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का योगनिद्रा काल : चातुर्मास कहलाता है (भाग - पहला)

ॐ गं गणपतये नमः 



जय श्रीकृष्ण मित्रों ! कल आप ने शयनी एकादशी के विषय में पढ़ा। देवशयनी एकादशी के साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है। इस के साथ ही चार माह तक कोई मांगलिक कार्य नहीं होता।  देवोत्थान एकादशी के साथ शुभ कार्यों की शुरुआत होगी। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु पाताल लोक में सोने चले जाते है। इस कारण इन चार माह में शुभ कार्यों को वर्जित माना गया है।
पुराणों में कहा गया है कि भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चारमास पर्यन्त पाताल में राजा बली के यहाँ निवास करते हैं। आप ने विष्णु अवतार में भगवान वामन के अवतार के विषय को विस्तार से पढ़ा था। 

भगवान् विष्णु का पन्द्रहवाँ अवतार : वामन अवतार 

वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।
जब बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ लेगयी तब से ऋषि मुनियों एवं देवताओं ने भगवान की पूजा एवं स्तुति की। राजा बलि ने भगवान विष्णु जी से चार मास तक पाताल लोक में रहने का आग्रह किया।


वर्षाकाल के चार महीने सावन, भादों, आश्विन और कार्तिक में सम्पन्न होने वाला उपवास का नाम है चातुर्मास।

कुछ भक्त व्रतारम्भ आषाढ़़ शुक्ल एकादशी से करते हैं, कुछ द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, “चातुर्मास व्रत” का आरम्भ करते हैं। यह चाहे कभी भी आरम्भ हो, लेकिन कार्तिक शुक्ल द्वादशी को समाप्त हो जाता है। सन्यासी लोग सामान्यतः गुरू पूर्णिमा से चातुर्मास का आरम्भ मानते हैं।




चातुर्मास में व्रत के साथ-साथ कुछ नियमों का पालन करना चाहिए -

  • चार मासों तक व्रती को कुछ खाद्य पदार्थ त्यागने चाहिए, इस संबंध में सिद्धांत यह है कि श्रावण मास में शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन मास में दूध और कार्तिक मास में दालें ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
  • चातुर्मास्य का व्रत करने वाले को शय्या-शयन, मांस, मधु आदि का त्याग करना चाहिए। उसे जमीन पर शयन करना चाहिए, पूर्णतः शाकाहारी रहना चाहिए तथा मधु आदि रसदार वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • गुड़, तेल, दूध, दही, बैंगन, शाकपत्र आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। उक्त खाद्य पदार्थों के त्याग का शास्त्रों में निम्नलिखित फल कहे गए हैं -
  • गुड़ त्याग से मधुर स्वर प्राप्त होता है।
  • कड़वे तेल त्याग से शत्रु का नाश होता है।
  • घृत त्याग से सौंदर्य मिलता है।
  • शाक त्याग से बुद्धि एवं बहुपुत्र प्राप्त होते हैं।
  • शाक एवं पत्रों के त्याग से पकवान की प्राप्ति होती है।
  • दधि-दुग्ध त्याग से वंशवृद्धि होती है तथा व्रती गाओं के लोक में जाता है।
  • चातुर्मास्य में जो व्यक्ति उपवास करते हुए नमक का त्याग करता है, उसके सभी कार्य सफल होते हैं।


मंगलवार, 4 जुलाई 2017

शयनी एकादशी महात्म्य

ॐ गं गणपतये नमः 
 शयनी एकादशी महात्म्य 


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आज देवशयनी एकादशी है इस एकदशी को शयनी एकादशी भी कहा जाता है। 



देवशयनी एकादशी पौराणिक महत्व


पुराणो के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान श्री हरी विष्णु जी चार माह तक पाताल लोक में निवास अर्थात शयन मुद्रा में चले जाते है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु जागृत होते है। इन चार माह में भगवान विष्णु जी क्षीर सागर में अनंत शैया पर शयन करते है। अतः इस अवधि में कोई भी धार्मिक कार्य नही किया जाता है।

शयनी एकादशी


युधिष्ठिर ने पूछा : भगवन् ! आषाढ़ के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है उसका नाम और विधि क्या हैयह बतलाने की कृपा करें ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम शयनी’ है।  मैं उसका वर्णन करता हूँ । वह महान पुण्यमयीस्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवालीसब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है ।  आषाढ़ शुक्लपक्ष में शयनी एकादशी’ के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवान विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया हैउन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पूजन कर लिया । हरिशयनी एकादशी’ के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर तब तक शयन करता हैजब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जातीअत: आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभाँति धर्म का आचरण करना चाहिए । जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता हैवह परम गति को प्राप्त होता हैइस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशी का व्रत करना चाहिए । एकादशी की रात में जागरण करके शंखचक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए । ऐसा करनेवाले पुरुष के पुण्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं ।

राजन् ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता हैवह जाति का चाण्डाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय रहनेवाला है । जो मनुष्य दीपदानपलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैंवे मेरे प्रिय हैं । चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैंइसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए । सावन में सागभादों में दहीक्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए । जो चौमसे में ब्रह्मचर्य का पालन करता हैवह परम गति को प्राप्त होता है । राजन् ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैअत: सदा इसका व्रत करना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए । शयनी’ और बोधिनी’ के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैंगृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए ।









शनिवार, 1 जुलाई 2017

आप जानते है राधे-कृष्ण के प्रेम का आरम्भ कब कैसे कहा हुआ

ॐ गं गणपतये नमः 



जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब तक आप ने वेदों, पुराणों और भगवान विष्णु जी के अवतारो के विषय में जाना। भगवतगीता का आध्यात्मिक आनंद लिया। अब मित्रों भगवान श्रीकृष्ण जी के लीलाओं का आनंद लेगे। जिसमें उनकी बाललीलाओ का वर्णन होगा। उन से सम्बंधित और उन्ही के कृपा से इस ब्लॉग को आगे बढ़ाता हूँ : 


प्रभु के यश का श्रवण और र्कीतन दोनों हमें पवित्र करते हैं । हृदय पवित्र होता है तो प्रभु हृदय में स्थित हो जाते हैं ( प्रभु का वास सभी जीवों में है पर अशुद्ध और अपवित्र विचार, आचरण के कारण प्रभु हमारे भीतर होते हुये भी हमारे लिए अदृश्य होते हैं ) । प्रभु के हृदयपटल पर स्थ्‍िात होते ही अशुभ वासनायें भाग खड़ी होती हैं और शुभ और पवित्र विचार, आचरण का संचार हमारे भीतर स्वतः हो जाता है। मित्रों आप से शुरुआत राधे-कृष्ण के नाम से ही करते है राधे-कृष्ण के प्रेम को सारे संसार में पूजा जाता है कृष्ण लीला के शुरुआत अपने अराध्ये के नाम और प्रेम से करते है राधे- राधेराधे-कृष्ण के प्रेम का आरम्भ कब कैसे कहा हुआ। 


देवी राधा को पुराणों में श्री कृष्ण की शश्वत जीवनसंगिनी बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि राधा और कृष्ण का प्रेम इस लोक का नहीं बल्कि पारलौक है। सृष्टि के आरंभ से और सृष्टि के अंत होने के बाद भी दोनों नित्य गोलोक में वास करते हैं।


लेकिन लौकिक जगत में श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम मानवी रुप में था और इस रुप में इनके मिलन और प्रेम की शुरुआत की बड़ी ही रोचक कथा है। एक कथा के अनुसार देवी राधा और श्री कृष्ण की पहली मुलाकात उस समय हुई थी जब देवी राधा ग्यारह माह की थी और भगवान श्री कृष्ण सिर्फ एक दिन के थे। मौका था श्री कृष्ण का जन्मोत्सव।


मान्यता है कि देवी राधा भगवान श्री कृष्ण से ग्यारह माह बड़े थी और कृष्ण के जन्मोत्सव पर अपनी माता कीर्ति के साथ नंदगांव आई थी यहां श्री कृष्ण पालने में झूल रहे थे और राधा माता की गोद में थी।
भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा की दूसरी मुलाकात लौकिक न होकर अलौकिक थी। इस संदर्भ में गर्ग संहिता में एक कथा मिलती है। यह उस समय की बात है जब भगवान श्री कृष्ण नन्हे बालक थे। उन दिनों एक बार एक बार नंदराय जी बालक श्री कृष्ण को लेकर भांडीर वन से गुजर रहे थे।

उसे समय आचानक एक ज्योति प्रकट हुई जो देवी राधा के रुप में दृश्य हो गई। देवी राधा के दर्शन पाकर नंदराय जी आनंदित हो गए। राधा ने कहा कि श्री कृष्ण को उन्हें सौंप दें, नंदराय जी ने श्री कृष्ण को राधा जी की गोद में दे दिया।

श्री कृष्ण बाल रूप त्यागकर किशोर बन गए। तभी ब्रह्मा जी भी वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी ने कृष्ण का विवाह राधा से करवा दिया। कुछ समय तक कृष्ण राधा के संग इसी वन में रहे। फिर देवी राधा ने कृष्ण को उनके बाल रूप में नंदराय जी को सौंप दिया।

राधा कृष्ण की लौकिक मुलाकात और प्रेम की शुरुआत संकेत नामक स्थान से माना जाता है। नंद गांव से चार मील की दूरी पर बसा है बरसाना गांव। बरसाना को राधा जी की जन्मस्थली माना जाता है। नंदगांव और बरसाना के बीच में एक गांव है जो 'संकेत' कहलाता है।

इस स्थान के विषय में मान्यता है कि यहीं पर पहली पर भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का लौकिक मिलन हुआ था। हर साल राधाष्टमी यानी भाद्र शुक्ल अष्टमी से चतुर्दशी तिथि तक यहां मेला लगता है और राधा कृष्ण के प्रेम को याद कर भक्तगण आनंदित होते हैं।

इस स्थान का नाम संकेत क्यों हुआ इस विषय में कथा है जब श्री कृष्ण और राधा के पृथ्वी पर प्रकट होने का समय आया तब एक स्थान निश्चित हुआ जहां दोनों का मिलना तय हुआ। मिलन का स्थान संकेतिक था इसलिए यह संकेत कहलाया।