रविवार, 30 अप्रैल 2017

अठारहवाँ अध्याय : मोक्षसंन्यासयोग (श्लोक: 1 से 45 हिन्दी में व्याख्या)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

मोक्षसंन्यासयोग 
अठारहवाँ अध्याय 
जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आपने अठारहवे अध्याय के १ ले ४५ श्लोक तक का अध्ययन किया आज उनकी हिन्दी में व्याख्या ---

अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ॥1॥


श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं॥2॥


कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं॥3॥


हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है॥4॥


यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं॥5॥


इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है॥6॥












जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'।)॥17॥













हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ॥30॥



हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह 'अव्यभिचारिणी धारणा' है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम 'उनकी क्रियाओं को धारण करना' है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है॥33॥



हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है॥36-37॥





अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं॥42॥


खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है॥44॥

अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन॥45॥




जय श्रीकृष्ण !
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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

अठारहवाँ अध्याय : मोक्षसंन्यासयोग (श्लोक: 1 से 45)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


मोक्षसंन्यासयोग 
अठारहवाँ अध्याय 
जय श्री कृष्ण मित्रों ! दूसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से श्रीमद्धभगवदगीता के उपदेश का आरम्भ हुआ है।  वहां से लेकर ३० वें श्लोक तक भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञानयोग का उपदेश दिया है और बीच में क्षात्र धर्म की द्रष्टि से युद्ध का कर्त्तव्ये बताकर ३९ वें श्लोक से अध्याय पूरा हो तब तक कर्मयोग का उपदेश दिया है।  फिर तीसरे अध्याय से सत्रहवे अध्याय तक किसी जगह पर ज्ञान योग के द्वारा तो किसी जगह कर्मयोग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है।  यह सब सुनकर अर्जुन इस अठारहवे अध्याय में सर्व अध्यायों के उद्देश्य का सार जानने के लिए भगवान के समक्ष संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्तिरहित कर्मयोग का तत्व अलग-अलग से समझने की इच्छा प्रकट करते है। 

अर्जुन उवाच --
ह्रषीकेश ! फ़रमाइये अब ज़रा,
है संन्यास और त्याग में फ़र्क क्या ?
कवी-दस्त ! केशी के कातल मुझे,
असूल उन के क्या हैं बता दीजिये ?। (१)

श्रीभगवानुवाच --
यह कहते हैं दाना कि ख्वाहिश के काम,
उन्हें छोड़ने का है संन्यास नाम। 
मगर त्याग में हो न तर्क-ए अमल,
करें सब अमल छोड़ कर उन के फल। (२)

कई मर्द दाना कहें छोड़ काम,
कि कर्मों में पिन्हाँ ज़रर है मदाम। 
कई यूँ कहें यह सआदत न जाये,
इबादत सख़ावत रियाज़त न जाये। (३)

मगर मुझ से भारत के सरदार सुन,
मेरा कौल मेरे परस्तार सुन। 
कि इस त्याग के भी है इकसाम तीन,
गुणों से हुए इस के भी नाम तीन। (४)

तू यज्ञ और सख़ावत, रियाज़त न छोड़,
ये तीनों हैं ऐन-ए सआदत न छोड़। 
कि यज्ञ और सख़ावत रियाज़त के काम,
करें पाक दाना के दिल को मुदाम। (५)

यही फ़ैसला मेरे नज़दीक है,
यही राय पुख़्ता है और ठीक है। 
कि यज्ञ और सख़ावत रियाज़त भी कर,
तअल्लुक रख उन से न फ़िकर-ए समर। (६)

कि जो काम सर पर तेरे फ़र्ज़ है,
न छोड़ उस को यह फ़र्ज़ इक कर्ज़ है। 
यह तर्क इक फ़रेब-ए जहालत समझ,
यह त्याग इक तमोगुण की सूरत समझ। (७)

वो बुज़दिल जो तकलीफ़ के ख़ौफ़ से,
जो करने का है काम उसे त्याग दे। 
समझ ले रजोगुण वो तर्क-ए अमल,
न हासिल हो इस त्याग से कोई फल। (८)

करे फ़र्ज़ को फ़र्ज़ गर जान कर,
ताअल्लुक़ हो उस से न फ़िकर-ए समर। 
जो असली है अर्जुन यही त्याग है,
कि ऐन-ए सतोगुण यही त्याग है। (९)

हो त्यागी सतोगुण है और होश्यार,
शकूक अपने कर दे वो सब तार-तार। 
जो हो कार-ए नाखुश तो नाखुश न हो,
अगर कार-ए खुश हो ज़रा खुश न हो। (१०)

कि दुनिया में जितने हैं तन के मकीं,
करें तर्क सब काम मुमकिन नहीं। 
है त्यागी वही तर्क-ए बाअमल,
अमल जो करे छोड़ कर उन के फल। (११)

जो त्यागी नहीं जब वो दुनिया से जाये,
तो मर कर वो फल तीन सूरत से पाये। 
बुरे या भले या मुरक़्क़ब समर,
जो तारक हैं बच जाये उन से मगर। (१२)

जबरदस्त अर्जुन समझ मुझ से अब,
कि हर काम के पाँच होंगे सबब। 
हो पाँचो से तकमील हर काम की,
कहे सांख्य का फ़ल्सफ़ा भी यही। (१३)

सबब अव्वली है अमल का मुकाम,
दोम आमल उस का फिर आज़ा तमाम। 
चहारम सबब सही-ओ तदबीर है,
तो पंचम सबब दस्त-ए तकदीर है। (१४)

कोई काम इन्सां यतन से करे,
जबां से कि तन से कि मन से करे। 
रवा काम या ना-रवा काम हो,
इन्ही पाँच से वो सर-अन्जाम हो। (१५)

करीन-ए ख़िरद फिर नहीं उस की बात,
जो समझे है आमल फ़कत उस की ज़ात। 
हक़ीक़त में है वो हक़ीक़त से दूर,
वो मूरख है दानिश में जिस को फ़तूर। (१६)

वो इन्सां जो दिल में न रक्खे ख़ुदी,
नहीं जिस की दानिश में आलूदगी। 
नहीं उस को कर्मों के बन्धन से काम,
वो कातल नहीं गो करे कतल-ए आम। (१७)

अमल के मुहरक हैं मफ़हूम तीन,
वो है आलम-ओ इल्म-ओ मालूम तीन। 
 अजज़ा है जिन पर अमल का मदार,
हैं कारिंदा-ओ कार-ओ आलात-ए कार। (१८)

नज़र आये जिस ज्ञान से बरमला,
हर इक में वही हस्ती-ए लाफ़ना। 
जो कसरत में वाहदत की पहचान है,
तो ऐन-ए सतोगुण यही ज्ञान है। (२०)

नज़र आये कसरत में कसरत अगर,
कि सब हस्तियाँ हैं जुदा सर-बसर। 
जो कसरत में वाहदत से अनजान है,
रजोगुण उस इन्सान का ज्ञान है। (२१)

अगर जुज़्ब में दिल लगाने लगे,
इसी जुज़्ब को कुल बताने लगे। 
तो दानिश है कोता, नज़र तंग है,
तमोगुण इसी ज्ञान का रंग है। (२२)

अमल वो जो लाज़म है और बे-लगाओ,
न रग़बत न नफ़रत का जिस में सुभाओ। 
न हो फल की ख़्वाहिश का जिस में ख़लल,
यही है यही है सतोगुण अमल। (२३)

मगर वो अमल जिस में फल का हो शौक,
रहे लज़्जत-ओ कामरानी का ज़ौक। 
खुदी की नुमाइश हो और दौड़-धूप,
यह समझो अमल का रजोगुण है रूप। (२४)

फ़रेब-ए नज़र से करें काम अगर,
न हो फिकर-ए इमकान-ओ अन्जाम अगर। 
न हो जिस में इज़्ज़ा-ओ नुकसाँ पे ग़ौर,
तमोगुण अमल के यही बस हैं तौर। (२५)

तआल्लुक से बाला खुदी से बरी,
इरादे का मज़बूत दिल का कवी। 
बराबर हैं जिस के लिए हार जीत,
वो आमल सतोगुण की रखता है रीत। (२६)

जो तालिब है फल का हवस-नाक है,
जो लोभी है ज़ालिम है नापाक है। 
ख़ुशी से जो ख़ुशी हो जो ग़म से मलूल,
वो आमल रजोगुण के बरते असूल। (२७)

जो चञ्चल कमीना है जिद्दी कि सुस्त,
नहीं काम करने में चालाक-ओ चुस्त। 
फ़रेबी शरीर और मग़मूम है,
वो आमल तमोगुण से मौसूम हैं। (२८)

इयां अक्ल-ए इन्सां में हो तीन गुण,
बताता हूँ अर्जुन तवज्जो से सुन। 
हैं गुण अज़्म दिल के भी तीनों यही,
बा-तफ़सील सुन मुझ से ले आगही। (२९)

हों तर्क-ओ अमल खैर हो या हो शर,
निजात-ओ असीरी दिलेरी कि डर। 
जो फ़रक-ओ तमीज़ इन में समझायेगी,
 सतोगुण वही अक्ल कहलायेगी। (३०)

बताये न जो साफ़ धर्म और अधर्म,
रवा कौन है ना-रवा कौन कर्म। 
तो अर्जुन नहीं है सतोगुण वो अक्ल,
है अपने गुणों से रजोगुण वो अक्ल। (३१)

घिरी हो अन्धेरे में दानिश अगर,
जो शर को कहे खैर नेकी को शर। 
हर इक बात उलटी हर इक में फ़तूर,
तमोगुण वही अक्ल है बिल्जरूर। (३२)

अगर योग से अज़्म हो उस्तवार,
हवास-ओ दिल-ओ दम पे हो इख्त्यार। 
तो अच्छा वही अज़्म अर्जुन समझ,
वही अज़्म रासख़ सतोगुण समझ। (३३)

मगर अज़्म वो जिस में हो शौक-ए जर,
फ़रायज़ से मकसद हो फ़िक़र-ए समर। 
हवा-ओ हवस से रहे इल्तफात,
रजोगुण हैं अर्जुन वो अज़्म-ओ सबात। (३४)

मगर अज़्म खाली जहालत का बाब,
रहे आदमी जिस से पाबन्द-ए ख्वाब। 
बढ़े खौफ़-ओ रंज-ओ मलाल-ओ ग़रूर,
तमोगुण वही अज़्म है बिलजरूर। (३५)

सुन अब मुझ से भारत के सरदार सुन,
कि सुख के भी इन्सां में है तीन गुण।
है पहले वो सुख जिस से दुःख दूर हो,
बशर मश्क से जिस मसरूर हो। (३६)

वो सुख जिस से हासिल हो दुःख से निजात,
वो पहले है ज़हर  फिर आब-ए हय्यात।
वो सुख आत्मा के मिले ज्ञान से,
सतोगुण वही सुख है पहचान ले। (३७)

जो महसूस से मेल खाकर हवास,
मुसररत की लज़्ज़त से हों रुशनास।
तो पहले वो अमृत है फिर ज़हर है,
रजोगुण मुसररत की इक लहर है। (३८)

हो मदहोश इन्सां जिस आराम में,
जो धोक़ा है आगाज़-ओ अन्जाम में।
बढ़े सुस्ती-ओ ग़फ़लत-ओ ख़्वाब से,
तमोगुण वो सुख है समझ लीजिये। (३९)

जो माया से पैदा हुए तीन गुण,
कोई उन से बाहिर नहीं खूब सुन।
जमीं के जो बाशी हैं, सब उन में क़ैद,
फ़लक पर जो हैं देवता के सैद। (४०)

ब्राह्मण कि हो क्षत्री, शूद्र, वैश्य,
सुन अर्जुन हर इक का निराला यहीं कैश।
फ़रायज़ जुदा सब की ख़िसलत जुदा,
कि फितरत ने की सब की जीनत ज़ुदा। (४१)

सकूँ, जब्त, अफ़्व-ख़ता, रास्ती,
ख़िरद, इल्म, ईमाँ, पाकीज़गी।
रियाज़त, इबादत के पाकीज़ा कर्म,
यह फितरत ने रक्खा ब्राह्मण का धर्म। (४२)

शुजायत, सखावत, सबात और जलाल,
खुदावन्द-गारी-ओ फ़न में कमाल।
कभी छोड़ आना न मैदान-ए जंग,
यही क्षत्री की हैं फ़ितरत के रंग। (४३)

जो है वैश्य तबन्न तिजारत करे,
करे गल्ला-बानी, जरायत करे।
जो है शूद्र सब के वो करता है कार,
है फितरत से ख़लकत का ख़िदमतगुजार। (४४)

अगर अपने अपने करो कारोबार,
तो हो जाओगे कामल अन्जाम-कार।
अगर फ़र्ज की अपने तामील हो,
तो सुन क्यों कर इन्सां की तकमील हो। (४५





शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रयविभागयोग (हिन्दी में व्याख्या)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 








श्रद्धात्रयविभागयोग
सत्रहवाँ अध्याय
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! कल आपने सत्रहवे अध्याय का पठन किया। आज हिन्दी में व्याख्या --



अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी या अन्य किस प्रकार की होती है? (१) 

श्री भगवान्‌ ने कहा - शरीर धारण करने वाले सभी मनुष्यों की श्रद्धा प्रकृति गुणों के अनुसार सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार की ही होती है, अब इसके विषय में मुझसे सुन। (२) 

हे भरतवंशी! सभी मनुष्यों की श्रद्धा स्वभाव से उत्पन्न अर्जित गुणों के अनुसार विकसित होती है, यह मनुष्य श्रद्धा से युक्त है, जो जैसी श्रद्धा वाला होता है वह स्वयं वैसा ही होता है। (३) 

सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य अन्य देवी-देवताओं को पूजते हैं, राजसी गुणों से युक्त मनुष्य यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं और अन्य तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं। (४) 

जो मनुष्य शास्त्रों के विधान के विरुद्ध अपनी कल्पना द्वारा व्रत धारण करके कठोर तपस्या करतें हैं, ऎसे घमण्डी मनुष्य कामनाओं, आसक्ति और बल के अहंकार से प्रेरित होते हैं। (५) 

ऎसे भ्रमित बुद्धि वाले मनुष्य शरीर के अन्दर स्थित जीवों के समूह और हृदय में स्थित मुझ परमात्मा को भी कष्ट देने वाले होते हैं, उन सभी अज्ञानियों को तू निश्चित रूप से असुर ही समझ। (६) 

हे अर्जुन! सभी मनुष्यों का भोजन भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है, और यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं, इनके भेदों को तू मुझ से सुन। (७) 

जो भोजन आयु को बढाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख और संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त चिकना और मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं। (८) 

कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्यधिक गरम, चटपटे, रूखे, जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी मनुष्यों को रुचिकर होते हैं, जो कि दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले होते हैं। (९) 

जो भोजन अधिक समय का रखा हुआ, स्वादहीन, दुर्गन्धयुक्त, सड़ा हुआ, अन्य के द्वारा झूठा किया हुआ और अपवित्र होता है, वह भोजन तमोगुणी मनुष्यों को प्रिय होता है। (१०) 

जो यज्ञ बिना किसी फल की इच्छा से, शास्त्रों के निर्देशानुसार किया जाता है, और जो यज्ञ मन को स्थिर करके कर्तव्य समझकर किया जाता है वह सात्त्विक यज्ञ होता है। (११) 

परन्तु हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ केवल फल की इच्छा के लिये अहंकार से युक्त होकर किया जाता है उसको तू राजसी यज्ञ समझ। (१२) 

जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता हैं। (१३) 

ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१४) 

किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द वोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१५) 

मन में संतुष्टि का भाव, सभी प्राणीयों के प्रति आदर का भाव, केवल ईश्वरीय चिन्तन का भाव, मन को आत्मा में स्थिर करने का भाव और सभी प्रकार से मन को शुद्ध करना, मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१६) 

पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से उपर्युक्त तीनों प्रकार से जो तप किया जाता है उसे सात्विक (सतोगुणी) तप कहा जाता है। (१७) 

जो तप आदर पाने की कामना से, सम्मान पाने की इच्छा से और पूजा कराने के लिये स्वयं को निश्चित रूप से कर्ता मानकर किया जाता है, उसे क्षणिक फल देने वाला राजसी (रजोगुणी) तप कहा जाता है। (१८)

जो तप मूर्खतावश अपने सुख के लिये दूसरों को कष्ट पहुँचाने की इच्छा से अथवा दूसरों के विनाश की कामना से प्रयत्न-पूर्वक किया जाता है, उसे तामसी(तमोगुणी) तप कहा जाता है। (१९) 

जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी उपकार की भावना से, उचित स्थान में, उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को ही दिया जाता है, उसे सात्त्विक (सतोगुणी) दान कहा जाता है। (२०) 

किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है। (२१) 

जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) दान कहा जाता है। (२२) 

सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३) 

इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४) 

इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५) 

हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द ‍का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६) 

जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७) 

हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८) 

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में श्रद्धात्रय विभाग-योग नाम का सत्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

















गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रयविभागयोग

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

सत्रहवाँ अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! सोलहवे अध्याय के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम भाव से आचरण करते हुए शास्त्रीय गुण तथा आचरण का वर्णन दैवी सम्पति के रूप में किया।  बाद में शास्त्र विरुद्ध आसुरी सम्पति का वर्णन किया।  उसके साथ आसुरी स्वभाववाले लोगों के पतन की बात कहीं, आत्मकल्याण के लिए जो साधन करता है वह परमगति को पाता है। करने योग्य अथवा न करने योग्य कर्मों की व्यवस्था दर्शानेवाले शास्त्रों के विधान के अनुसार ही तुझे निष्काम कर्म करने चाहिए। 
इस उपदेश से अर्जुन के मन में शंका हुई कि जो लोग शास्त्रविधि छोड़कर इच्छा अनुसार कर्म करते है उनके कर्म निष्फल हो वह तो ठीक है लेकिन ऐसे लोग भी है जो शस्त्र विधि न जानने से तथा दूसरे कारणों से शास्त्रविधि छोड़ते है, फिर भी यज्ञ पूजादि शुभ कर्म तो श्रद्धापूर्वक करते है, उनकी क्या स्थिति होती है ? यह जानने की इच्छा से अर्जुन भगवान से पूछते है : 

अर्जुन उवाच --
जो यज्ञ करने वाले हैं ऐहल-ए यकीं,
मगर शासतर पर जो चलते नहीं। 
तो फरमाये वो सतोगुण पे हैं,
कि आमल रजोगुण तमोगुण पे हैं  ?। (१)

श्रीभगवानुवाच --
कहा सुन के भगवान् ने यह सवाल,
मुताबिक है फ़ितरत के ईमाँ का हाल। 
कि ईमाँ के अन्दर भी हैं तीन गुण,
सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण तू सुन। (२)

कि जो जिस की फ़ितरत का आहंग है,
वही उस के ईमाँ का भी रंग है। 
कि इन्सां खुद ईमाँ की तफ़सीर है,
अक़ीदा ही इन्सां की तसवीर है। (३)

सतोगुण तो पूजेगे देवों को बस,
रजोगुण मगर यक्ष और राक्षस। 
तमोगुण के बन्दे हैं सब से अलग,
कि वो भूत प्रेतों को देते है यज्ञ। (४)

जो तप में उठाते हैं रंज-ओ तअब,
उलट शास्त्र के करें काम सब। 
वो मक्कार ख़ुद-बीं हैं और सख़त कोश,
भरी इन में है कूअत-ए हिरस-ओ जोश। (५)

करें वो दुःखी पांच तत्त का बदन,
मुझे भी जो इस तन में हूँ खेमा-जन। 
बाजाहिर तो हर चन्द इन्सां हैं वो,
जो अज़म उन का देखो तो शैतां  है वो। (६)

गिज़ा जिस के शायक हैं सब उन की सुन,
करें फ़र्क इस में यही तीन गुण। 
यही गुण उसी तरह देंगे बदल,
इबादत रियाज़त सख़ावत के फल। (७)

ग़िज़ा जिस से सेहत हो और जिन्दगी,
बढ़े जोर-ओ ताकत खुशी खुररमी। 
मुकव्वी हो, पुर-रोग़न और ख़ुशगवार,
सतोगुण के शायक को है इस से प्यार। (८)

सलोनी हो, खटटी कि कड़वी ग़िज़ा। 
जली, चटपटी, गर्म या बे-मज़ा। 
ग़िज़ा ऐसी खायें रजोगुण के लोग,
उन्हें रंज हो दुःख हो या तन का रोग। (९)

जो बासी हो बूदार गन्दी ग़िज़ा,
हो बद-जायका या हो झूठी ग़िज़ा। 
यह खाना तमोगुण के बन्दों का है,
कि खाना जो गन्दा है गंदो का है। (१०)

वही है सतोगुण का यज्ञ बिलजरूर,
न हो फल की ख़्वाहिश का जिस में फ़तूर। 
अमल शासतर की रियाजत से हो,
इबादत, इबादत की नीयत से हो। (११)

अगर यज्ञ किया फल की ख़्वाहिश के साथ,
ख़याल-ए नमूद-ओ नुमाइश के साथ। 
तो अर्जुन नहीं यह सतोगुण का यज्ञ,
रजोगुण का है यह रजोगुण का यज्ञ। (१२)

जो करते हैं यज्ञ शासतर के खिलाफ़,
न अन्न-दान जिस में न मंत्र हो साथ। 
न हो दक्षिणा और न ज़ौक-ए यकीं,
तमोगुण के यज्ञ के सिवा कुछ नहीं। (१३)

जो पूजा करे देवताओं की तू,
वो ब्राह्मण हों आलम हों या हों गुरु। 
अहिंसा तज़र् रुद, सफ़ा रास्ती,
बदन की रियाजत यही है यही। (१४)

सुख़न वो जो सच्चा हो और बे-ख़रोश,
मुफ़ीद-ए खलायक हो फिरदोस-ए गोश। 
मुकदद्स कुतब की तलावत मुदाम,
ज़बाँ की रियाजत इसी तलावत मुदाम। (१५)

सकूँ दिल  में हो लब पे हो ख़ामशी,
हलीमी ख़्यालो में पाकीज़गी। 
रहे नफ़्स पर ज़ब्त और दिल हो राम,
इसी शाय का मन की रियाजत है नाम। (१६)

जो यकदिल यकीं से इबादत करें,
वो तन-मन जबाँ से रियाजत करें। 
न हो फल की ख़्वाहिश पे आमदगी,
सतोगुण रियाजत यही है यही। (१७)

रियाज़त दिखावे की गर जी  भाये,
कि लोगों में इज़्ज़त हो पूजा कराये।
रियाज़त वो चञ्चल है नापायदार,
कर इस को रजोगुण रियाज़त शुमार। (१८)

वो तप जिस में जिद्दी उठाता है कष्ट,
वो तप जिस का मक्सद हो औरों का नष्ट।
जहालत का तप इस को गरदान तू,
तमोगुण रियाज़त इसे जान तू। (१९)

उसे जान कर फ़र्ज़ ख़ैरात दे,
जो हक़दार हो जिस से ख़िदमत न ले।
मुनासिब हो वक़्त और हो मौजूं मुकाम,
सतोगुण सख़ावत इसी का है नाम। (२०)

हो अहसाँ से बदले की ख़्वाहिश अगर,
सख़ावत में फल पर लगी हो नज़र।
अगर बे-दिली से कोई दान दे,
रजोगुण सख़ावत उसे जान ले। (२१)

अगर नामुनासिब है वक़्त और मुकाम,
उसे दान दें जिस को देना हराम।
जो ले उस की ज़िल्लत करें दिल दुखायें,
तमोगुण सख़ावत उसी को बतायें। (२२)

जो है ओ३म तत् सत् मुकद्दस कलाम,
सह गोना है यह ब्रह्म का पाक नाम।
इन्हीं से ब्राह्मण हुए आशकार,
इन्हीं से हुए यज्ञ और वेद चार। (२३)

इबादत सखावत रियाज़त के काम,
मुआफ़िक जो है शास्तर के तमाम।
वो सब ब्रह्मदाँ मरदम-ए पारसा,
हमेशा करें ओ३म से इब्तदा। (२४)

जहाँ में है मतलूब जिस को निजात,
समर से नहीं कुछ उसे इल्तफात।
इबादत रियाज़त सखावत करे,
मगर हर्फ़-ए तत् पहले मुंह से कहे। (२५)

हक़ीक़त यही है कि हक़ीक़त है सत्,
सदाकत यही है सदाकत है सत्।
कि दुनिया में जो भी भला काम है,
सुन अर्जुन कि उस का भी सत् नाम है। (२६)

यही सत् समझ उस अकीदत को जो,
इबादत रियाज़त सखावत में हो।
करें 'उस' खुदा के लिए जो भी काम,
तो उस काम का भी यही सत् है नाम। (२७)

हवन दान में हो अकीदत न शौक,
रियाज़त में ईमाँ अमल में न ज़ौक।
इन अफ़आल का फिर असत् नाम है,
यहाँ है न उन का वहाँ काम है। (२८)

(सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ)

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! यह अध्याय समाप्त हुआ।  

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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

सोलहवाँ अध्याय : दैवसुरसम्पद्विभागयोग (हिन्दी में व्याख्या)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

दैवसुरसम्पद्विभागयोग 
















सोलहवाँ अध्याय 
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! कल सोलहवे अध्याय को पढ़ा।  आज हिन्दी में व्याख्या 
भगवान ने कहा -

किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव
ईश्वरीय तेज का होना, अपराधों के लिये माफ कर देने का भाव
हे पृथापुत्र! पाखण्ड, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता यह सभी आसुरी स्वभाव
दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बन्धन का कारण माने जाते है, हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवीय गुणों से युक्त होकर उत्पन्न हुआ है। (५)
हे अर्जुन! इस संसार में उत्पन्न सभी मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के ही होते है, एक दैवीय स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव, उनमें से दैवीय गुणों को तो विस्तार पूर्वक कह चुका हूँ, अब तू आसुरी गुणों को भी मुझसे सुन। (६)
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य यह नही जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या नही करना चाहिये, वह न तो बाहर से और न अन्दर से ही पवित्र होते है, वह न तो कभी उचित आचरण करते है और न ही उनमें सत्य ही पाया जाता है। (७)
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत्‌ झूठा है इसका न तो कोई आधार है और न ही कोई ईश्वर है, यह संसार बिना किसी कारण के केवल स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, कामेच्छा के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नही है। (८)
इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करने वाले मनुष्य जिनका आत्म-ज्ञान नष्ट हो गया है, बुद्धिहीन होते है, ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य केवल विनाश के लिये ही अनुपयोगी कर्म करते हैं जिससे संसार का अहित होता है। (९)
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन, झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं। (१०)
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जीवन के अन्तिम समय तक असंख्य चिन्ताओं के आधीन रहते है, उनके जीवन का परम-लक्ष्य केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये ही निश्चित रहता है। (११)
 
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं॥12॥
 सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा॥13॥

 शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥

 बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥15-16॥

 वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥


 वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥

 द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ॥19॥

 हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं॥20॥

 क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

 अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही ‘अपने कल्याण का आचरण करना’ है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात्‌ मुझको प्राप्त हो जाता है॥22॥

 जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही॥23॥

 तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है॥24॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दैवासुर संपद्विभाग-योग नाम का सोलहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
                                                  ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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जय श्रीकृष्ण मित्रों

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

सोलहवाँ अध्याय : दैवसुरसम्पद्विभागयोग

ॐ श्री परमात्मने नमः 

दैवसुरसम्पद्विभागयोग 
सोलहवाँ अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! सातवे अध्याय के पन्द्रहवे श्लोक में तथा नौवे अध्याय के ११वे तथा १२ वें श्लोक में भगवान् ने कहा है : 'आसुरी तथा राक्षसी प्रकृति धारण करनेवाले मूढ़ लोग मेरा भजन नहीं करते है लेकिन मेरा तिरस्कार करते है। ' और नौवे अध्याय के १३ वें और १४ वें श्लोक में कहा : 'दैवी प्रकृतिवाले महात्मा पुरुष मुझे सर्वभूतों का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम सहित सब प्रकार से हमेशा मेरा भजन करते हैं, लेकिन दूसरे प्रसंग चालू होने के कारण वहाँ दैवी और आसुरी प्रकृति के लक्षण नहीं किये है।  फिर पंद्रहवे अध्याय के १९ वें श्लोक में भगवान् ने कहा : ' जो ज्ञानी महात्मा मुझ पुरुषोत्तम को जानते है वह सर्व प्रकार से मेरा भजन करते है।' इस विषय पर स्वाभाविक रीति से ही दैवी प्रकृतिवाले ज्ञानी पुरुष के तथा आसुरी प्रकृतिवाले अज्ञानी मुनष्य के लक्षण कौन-कौन से हैं यह जानने की इच्छा होती है।  इसलिए भगवान् अब दोनों के लक्षण एवं स्वभाव का विस्तार पूर्वक वर्णन करने के लिए यह सोलहवाँ अध्याय आरम्भ करते है इसमें पहले तीन श्लोको द्वारा दैवी सम्पत्तिवाले सात्विक पुरुष के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते है। 

श्रीभगवानुवाच ---
सुन अर्जुन हैं क्या देवताई सफ़ात,
दिलेरी व इल्म व अमल में सबात। 
सख़ा, ज़ब्त, यज्ञ, दिल की पाकीजग़ी,
तलावत, रियाज़त, सलामत-रवी। (१)

अहिंसा, सदाकत करम तर्क-ए ऐश,
न फ़ितरत का चंचलपना और न तैश। 
दिल-ए बे-हवस, पुरसकूँ, तबा नर्म,
न दिल तंग होना, निगाहों में शर्म। (२)

सबूरी, सफ़ा, जोर, उफ़व-ए ख़ता,
हसद से तकब्बर से रहना जुदा। 
जब इन नेक वसफ़ो पे मायल है वो,
तो इन्सां फ़रिश्ता ख़सायल है वो। (३)

दो रंगी, गरूर व् नुमाइश ग़जब,
सुख़न तलख़ बाते जहालत की सब। 
इन्हीं से उस इन्सां की पहचान है,
सदा से जो फ़ितरत का शैतान है। (४)

हैं नेको ख़्सायल, रहाई पसन्द,
शयाती की खिसलत से हो क़ैद-ओ बन्द। 
तुझे रञ्ज-ओ ग़म क्या है पाण्डु के लाल,
कि फ़ितरत से तू है फ़रिश्ता खिसाल। (५)

जमाने में जितने भी इन्सां हुए,
फ़रिश्ते कोई, कोई शैतां हुए। 
सुना है मुफ़स्सल फ़रिश्तो का हाल. 
जो शैतां हैं सुन उन का अब हाल-चाल। (६)

ख़बासत के पुतले उन्हें क्या तमीज़,
यह करने की है, वो न करने की चीज़। 
न सत उन के अन्दर न पाकीजपन,
मुअर्रा है शायस्तगी से चलन। (७)

वो कहते हैं झूठा है संसार सब,
न इस की है बुनियाद कोई न रब। 
करें मरद-ओ जन मिल के जब मस्तियाँ,
उन्हीं मस्तियों से हो सब हस्तियाँ। (८)

जो है इन ख़यालो के बद-कुन बशर,
वो खूंखार बे-रूह कोतह नज़र। 
अदू बन के दुनिया में आते रहे,
जहाँ में तबाही मचाते रहें। (९)

तकब्बर रिया और बनावट से काम,
वो तस्कीं न पाये हवस के गुलाम। 
वो खायें फरेब-ए ख़्यालात-ए बद,
बदी में दिखाये सदा शद-ओ मद। (१०)

ग़म-ए बे-हिसाब उन को दिन हो कि रात,
मिले फ़िकर दुनियां से मर कर निज़ात। 
है मक़्सूद उन का हवस रानियाँ,
हैं मदद्-ए नजर ऐश सामानियाँ। (११)

उम्मीदों के फंदों में अटके हुए,
ग़जब और शाहवत में लटके हुए। 
बदी से वो दौलत कमाते रहें,
जो ऐश-ओ तरब में गवाँते रहें। (१२)

वो कहता है आज एक पाई मुराद,
तो कल दूसरी हाथ आई मुराद। 
तो कल दौलत मेरी है, यह धन है मेरा,
मेरे पास ही ये रहेंगे सदा। (१३)

किया एक दुश्मन को मैंने हलाक,
करुँगा मैं औरों को अब जेर-ए ख़ाक। 
सुखी हूँ कवि हाकम-ए पुरजलाल,
मज़े ले रहा हूँ कि हूँ बा-कमाल। (१४)

मैं धनवान मेरा घराना शरीफ़,
भला कौन होता है मेरा हरीफ़। 
मैं लूँगा मज़े यज्ञ से और दान से,
यूं ही खाये धोखा वो अज्ञान से। (१५)

ख़यालो के फंदो में जकड़े हुए,
हैं तौहम के जालों में पकड़े हुए। 
तैश से जी को लगाते हैं वो,
तो नापाक दोजख़ में जाते हैं वो। (१६)

वो मग़रूर जिद्दी हैं और खुद-परस्त,
वो दौलत के नशे में रहते हैं मस्त। 
जो करते हैं यज्ञ भी तो बहर-ए नमूद,
नहीं पायें बन्द-ए रसूल-ओ काऊद। (१७)

वो गुस्ताख़ पुर कीना-ओ पुर-ग़रूर,
खुदी मस्ती-ओ तैश-ओ ताकत में चूर। 
मैं खुद उन के तन में हूँ या ग़ैर के,
न ख़ैर उन से पहुंचे सिवा वैर के। (१८)

ये हासद कमीने जफ़ाकार लोग,
ये जिल्लत के पुतले ये खूँ-ख्वार लोग। 
न जिल्लत से उन को निकालूँगा मैं,
शिकम में शयाती के डालूगा मैं। (१९)

शिकम में शयाती के हो कर मकीं,
ये बहके हुए मुझ तक आते नहीं। 
ये अर्जुन जनम पर जनम पायेंगे,
ये गिरते ही गिरते चले जायेंगे। (२०)

जहन्नुम के हैं तीन दर ला-कलाम,
तमा, शाहवत और गुस्सा जिन के हैं नाम। 
उन्हें छोड़ उन में न जाना कहीं,
न हस्ती को अपनी मिटाना कही। (२१)

तमोगुण को जाते हैं ये तीन दर,
जो इन से बचे वो रहे बे-ख़तर। 
मिले उस को आनन्द कुन्ती के लाल,
उसी को मुयस्सर हो औज़-ए कमाल। (२२)

जो इन्सां चले शास्त्र के खिलाफ,
हवस के हो ताबा करे इन्हराफ। 
मिले उस को राहत न औज़-ए कमाल,
रहे दूर उस से मुकाम-ए वसाल। (२३)

फ़कत शास्त्र को बना रहनुमा,
कि करना है क्या और न करना है क्या। 
बस अब धर्म पर दिल दिये जा मुदाम,
अमल शास्त्र पर किये जा मुदाम। (२४)

(सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ)