बुधवार, 31 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का दसवां अवतार : मत्स्य अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

 भगवान विष्णु का दसवां अवतार : मत्स्य अवतार  

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि,  दत्तात्रेय, यज्ञ, भगवान ऋषभदेव और आदिराज पृथु अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे

१० - मत्स्य अवतार -

रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम् ।।१४।।




चाक्षुष मन्वंतर में जब सारी पृथ्वी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य क रूप में दसवां अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बिठा कर अगले मन्वंतर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की 
मत्स्य अवतार : मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली, 'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली। 'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल किया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।' सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपक का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखते हुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?' सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।' सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक ही हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत और सप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगत नश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।' 



मंगलवार, 30 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का नौवाँ अवतार : आदिराज पृथु अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

  भगवान विष्णु का नौवाँ अवतार : आदिराज पृथु अवतार  

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि,  दत्तात्रेय, यज्ञ और भगवान ऋषभदेव अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे

९- आदिराज पृथु -भगवान विष्णु के एक अवतार का नाम आदिराज पृथु है। धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ। उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ।उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा।

 तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है।  वेन के अंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओ तथा पाँव में कमल चिन्ह था |हाथ में चक्र का चिन्ह था | वे विष्णु भगवान के ही अंश थे | ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया | उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी और प्रजा भूखो मर रही थी | 

श्रीमद्धभगवत अनुसार : 


वेन के अंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओ तथा पाँव में कमल चिन्ह था |हाथ में चक्र का चिन्ह था | वे विष्णु भगवान के ही अंश थे | ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया | उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी और प्रजा भूखो मर रही थी |
प्रजा का करुण क्रन्दन सुनकर राजा पृथु अति दुखी हुयी | जब उन्हें मालुम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न ,औषधि आदि को अपने उदर में छुपा लिया है तो वह धनुष बाण लेकर पृथ्वी को मारन के लिए दौड़ पड़े | पृथ्वी ने जब देखा कि अब उनकी रक्षा कोई नही कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आयी | जीवनदान की याचिका करती हुयी वह बोली “मुझे मारकर अपनी प्रजा को सिर्फ जल पर ही कैसे जीवित रख पाओगे ?”|पृथु ने कहा “स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए “| पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा “मेरा दोह्न करके आप सब कुछ प्राप्त करे | आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा | मेरी सम्पूर्ण सम्पदा दुराचारी चोर लुट रहे थे इसलिए मैंने वह सामग्रीया अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है मुझे आप समतल बना दीजिये “|राजा पृथु संतुष्ट हुए | उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया और स्वयं अपने हाथो से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन धान्य प्राप्त किया | फिर देवताओं और महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति ,अमृत ,सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुए प्राप्त की | पृथ्वी के दोहन से विपुल सम्पति एमव धन धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया | पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयम पिता की भांति प्रजाजनों के कल्याण एवं पालन पोषण का कर्तव्य पूरा किया |राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किये | स्वयं भगवान यज्ञेश्वर उन यज्ञो में आये और साथ ही सब देवता भी आये | पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को इर्ष्या हुयी | उनको संदेह हुआ कि कही राजा पृथु इन्द्रपुरी न प्राप्त कर ले | उन्होंने सौवे यज्ञ का घोडा चुरा लिया | जब इंद्र घोडा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्री ऋषि ने उन्हें देख लिया | उन्होंने रजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा| राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया | पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया | इंद्र ने वेश बदल रखा था |पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागने वाला जटाजूट एवं भस्म लगाये हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त नही समझा | वह लौट आया तब अत्रि मुनि ने उसे पुनः पकड़ने के लिए भेजा | फिर से पीछा करते हुए पृथु कुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वही छोडकर अंतर्धयान हो गये | पृथु कुमार अश्व को यज्ञशाला में आये | सभी ने उनके पराक्रम की प्रशंशा की। 


     अश्व को पशुशाळा में बाँध दिया गया | इंद्र ने छिप कर पुनः अश्व को चुरा लिया | अत्रि ऋषि ने जब देखा तो पृथु कुमार को बताया | पृथु कुमार ने इंद्र को बाण का लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गये | इंद्र के षड्यंत्र का पता जब पृथु को चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया | ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा “आप वर्ती है आप किसी का भी वध नही कर सकते है लेकिन हम मन्त्र द्वारा इंद्र को हवन कुण्ड में भस्म किये देते है। " यह कहकर ऋषियों ने मन्त्र से इंद्र का आह्वान किया | वे आहुति डालना ही चाहते थे कि वहा ब्रह्मा प्रकट हुए | उन्होंने सबको रोक दिया | उन्होंने पृथु से कहा “तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा का अंश हो | तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो | इन यज्ञो की क्या आवश्यकता है ? तुम्हारा यह सौवा यज्ञ पूर्ण नही हुआ है इसकी चिंता मत करो | यज्ञ को रोक दो | इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है उसका नाश करो ” |


भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञ शाळा में प्रकट हुए | उन्होंने पृथु से कहा “मै तुम पर प्रसन्न हु | यज्ञ में विघ्न डालने वाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो | राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है तुम तत्वज्ञानी हो | भगवत प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते है | तुम मेरे परमभक्त हो तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांग लो “|


राजा पृथु भगवान के प्रिय वचनों से प्रस्सन थे | इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े | पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया | राजा पृथु ने भगवान से कहा “भगवान ! सांसारिक भोगो का वरदान मुझे नही चाहिए यदि आप देना ही चाहते है तो मुझे शहस्त्र कान दिजीये जिससे आपका कीर्तन ,कथा एवं गुणानुवाद हजारो कानो से श्रवण करता रहू इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए “|


भगवान श्री हरी ने कहा “राजन ! तुम्हारी अविचल भक्ति से मै अभिभूत हु तुम धर्म से प्रजा का पालन करो | “| राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया | राजा पृथु की जब अवस्था ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य भार सौंप कर पत्नी अर्ची के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश लिया | अंत में तप के प्रभाव से चित्त स्थिर करके उन्होंने देह को त्याग कर दिया | उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्ची पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गयी | दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ |

सोमवार, 29 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का आठवाँ अवतार : ऋषभदेव अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि,  दत्तात्रेय  और यज्ञ अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे

भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में आठवांं अवतार लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार महाराज नाभि की कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा।

 वरदान स्वरूप कुछ समय बाद भगवान विष्णु महाराज नाभि के यहां पुत्र रूप में जन्मे। पुत्र के अत्यंत सुंदर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेल, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा।   

कल भी आप ने पढ़ा भागवत अनुसार : (

समय आने पर ऋषभ देव का विवाह इंद्र की सुपुत्री जयंती से हुआ और इनके सौ पुत्र हुए, जिनमे सबसे बड़े भरत जी थे। ये सभी पुत्र स्वयं श्री नारायण के पुत्र थे और बहुत संत स्वभाव वाले थे।  एक दिन ऋषभ देव जी ने अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया। 
ऋषभ जी बोले - हे पुत्रों, मानव देह हमें पशुओं की ही तरह संसार का सुख भोगने भर के लिए नहीं मिली है, बल्कि उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिली है ।  मन की शुद्धि आवश्यक है।  दो महाद्वार हैं- एक मोक्ष का और दूसरा संसार का ।  लोकसेवा का धर्म (कर्तव्य), साक्षी भाव से अलिप्त होकर करना, मनुष्य  को मोक्ष की ओर ले जाता है।  कर्मों में संग होना , और इन्द्रियविषयों में लिप्त होना संसार में डुबा देता है। 
संसार को भोगने की इच्छा ही जीवात्मा को परमात्मा से दूर देह के संग लाती है। फिर देह और मन का संग होने से मनुष्य अपने ही कर्म और मोहबंधनों में बांध जाता है और "आत्मन" कर्मों के जाल में फंसता चला जाता है और जन्म मरण के चक्र में बार बार घूमता रहता है।  अपने मोह में वह अपनी बुद्धि को मन और इन्द्रियों के विषयों के जाल में बाँध देता है और  कष्ट भोगता रहता है।


"मैं (अहंकार)" और "मेरा(ममकार)" - यह मनुष्य के प्रमुख शत्रु हैं।  
यह "अहंकार" और "ममकार" मनुष्य को जकड़ लेते हैं।

हे पुत्रों, मोह को त्याग दो।  गर्मी सर्दी सुख दुःख भ्रान्ति भूख प्यास इन सब का तुम पर कोई असर न हो।  तुम्हारा एक ही लक्ष्य हो -ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान । अपने आप को प्रभु को सौंप दो।  तुम्हारे सब कर्म उसके (कर्तव्य के / धर्म के) प्रति हों , उन कर्मों में तुम्हारा संग न हो।  हर एक में उसे देखो - इससे तुम किसी से नफरत नहीं करोगे।  सदा भक्तों के संग रहो जिससे प्रभु की कथाएं सुन सुन कर तुम्हारा मन प्रभु में रमा रहे।  एकांत में रहने का भी प्रयास करो, अपने नियत कर्म करो, कम बोलो और अधिक विचारवान होओ। 
"गुरु" का कर्त्तव्य है कि  "शिष्य" को सही राह दिखाए, क्योंकि वह जिस राह पर से चल कर आया है उस राह के संकट वह पहले से जानता है।  यदि उसके अनुभव से उसका शिष्य उन राह के रोड़ों से न बच सके तो उस गुरु का अनुभव बेकार ही है।  यदि कोई डूब रहा हो तो पहले से तैरना सीखे हुए व्यक्ति का कर्तव्य है कि उसे सम्हाले , न कि अपने अनुभव को अपने पास रख कर तमाशा देखे। 




हे प्रिय पुत्रों - अपने बड़े भ्राता भारत को अपना पिता समान मानना और उनकी आज्ञा मानना।  इस संसार में वैसे रहना जैसे मैंने अभी तुम्हे समझाया है।  भक्ति द्वारा मोह बंधन को काटते रहना, और स्वयं को इस जन्म मरण के चक्र से निकाल लेना। 
तब ऋषभ देव जी ने भरत को राजा बनाया और राज्य और परिवार से मुक्त ऋषभ देव जी वन को चले गए।  वे अवधूत हो गए और संसार त्यागने के समय के इंतज़ार में भ्रमण करते रहे। समय आने पर वे कूर्ग के वनों में थे - जहां भीषण आग लगी जिसमे वे स्व धाम को लौट गए। 


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रविवार, 28 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार : यज्ञ अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार : यज्ञ अवतार  


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण, कपिलमुनि और दत्तात्रेय अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे 



७. यज्ञ अवतार -भगवान विष्णु के सातवें अवतार का नाम यज्ञ है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई। इन्हीं आकूति के यहां भगवान विष्णु यज्ञ नाम से अवतरित हुए। भगवान यज्ञ के उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाये। श्रीमद्धभगवत अनुसार विस्तार से : 

 ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ।।११।।


सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की यज्ञ या यज्ञेश्वर {यज्ञ के स्वामी /ईश्वर } भगवान् नारायण का अवतार माने जाते हैं Iभागवत पुराण ,देवी भागवत और गरुड़ पुराण के अनुसार यज्ञ को आदि -नारायण का अवतार माना गया है I यज्ञ प्रजापति रुचि और आकूति के पुत्र हैं आकूति स्वयंभुव मनु की पुत्री थी I स्वयंभुव मन्वंतर के समय में कोई योग्य इंद्र नही था ,इसलिए भगवान् नारायण यज्ञ के रूप में अवतारित होकर स्वर्ग के राजा बने I नारायण साक्षात यज्ञ ही हैं Iभगवत गीता भी यज्ञ को नारायण से जोडती है I विष्णु सहस्रनाम में भी भगवान् के हज़ार नामों में एक नाम यज्ञ भी है। 



प्रियव्रत के प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र से नाभि का जन्म हुआ। नाभि आप ही की तुष्टि के लिये यज्ञ कर्म कर रहे थे। उसी यज्ञ में उन्हें सभी अभीष्टों के दाता आपके दर्शन हुए। मुनीश्वरों ने उस यज्ञ में प्रकट हुए आपकी स्तुति की और राजा नाभि के लिये आपके समान ही पुत्र की याचना की। हे विश्वमूर्ति! तब आपने कहा कि ' मै स्वयं ही जन्म लूंगा'। इस प्रकार कह कर उस यज्ञाग्नि में आप अन्तर्धान हो गये। नाभि की प्रिय पत्नी मेरुदेवी से फिर अंश रूप से ऋषभ नाम वाले आप प्रकट हुए। आपके असामान्य अलौकिक गुणों के प्रभाव से सभी आनन्द के भर गये। 



आप स्वयं ही त्रिलोक का भार वहन करने वाले हैं। आपके ऊपर राज्य का भार डाल कर नाभि, मेरुदेवी के संग तपोवन को चले गये। वहां आपकी ही सेवा अर्चना करते हुए वे परम आनन्द दायक आपके ही धाम वैकुण्ठ को प्राप्त हो गये। आपके उत्कर्ष से ईर्ष्या के वशीभूत हुए इन्द्र ने इस अजनाभ वर्ष के ऊपर वर्षा नहीं की। तब आप अपनी योग शक्ति के व्यवधान से अपने अजनाभवर्ष पर सुन्दर वृष्टि लाये। विजित इन्द्र ने तब आपको सुन्दरी जयन्ती प्रदान की। स्वयं अपनी आत्मा में रमण करने के आशय वाले आपने उससे विवाह कर के सौ पुत्रों को जन्म दिया जिनमें से राजा भरत सब से बडे थे। उन पुत्रों में से नौ तो योगिराज हो गये और दूसरे नौ भारत वर्ष के विभिन्न खन्डों पर राज्य करने लगे। बाकी इक्यासी पुत्र अपने तपोबल से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। तब आप (ऋषभ देव) मुनीश्वरों के सम्मुख अपने पुत्रों को विरक्ति भक्ति सहित मुक्ति मार्ग का उपदेश दे कर स्वयं परमहंस वृत्ति को प्राप्त हुए और आपने जड उन्मत्त और पिशाचों के आचरण को अपना लिया। परम आत्मस्वरूप होते हुए भी आप अन्य लोगों को उपदेश देते रहे। सभी से तिरस्कृत होते हुए भी विकारहीन, परमानन्द रस में अभिलीन हुए आप पूरी पृथ्वी पर विचरते रहे। सर्प की वृत्ति और गौ मृग एवं काक की जीवन चर्या को चिर काल तक निभाते हुए आप स्वयं के परम स्वरूप को प्राप्त हो गये। फिर कुटकाचल पर दावाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर को भस्म कर दिया। हे वातनाथ! मेरे तापों को दूर करें। 









शनिवार, 27 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का छः वाँ अवतार: दत्तात्रये अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

भगवान विष्णु का छः वाँ अवतार : दत्तात्रये  अवतार -   

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद, नर-नारायण और कपिलमुनि अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे 







षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान् ।।१०।। 

अनसूया के वर मांगने पर छठे अवतार में वे अत्री की संतान -दत्तात्रेय हुए ।इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रहलाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया l 


ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता सती अनुसूया इनकी माता थीं। भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव महर्षि अत्रि के चरम तप का पुण्यफल तथा सती अनुसूयाके परम पतिव्रता होने का सुफल है। वे योगियों के परम ध्येय होने के कारण सर्वत्र गुरुदेव कहे जाते हैं।

प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेय ने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इन्होंने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था। त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय जी ने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनिको अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया। कार्तवीर्यार्जुन को तन्त्र विद्या एवं नार्गार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय जी ने ही बताया था। 
परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेय जी आज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है। भगवान दत्तात्रेय का असाधारण कार्य है- अखण्ड रूप से ज्ञानदानकरते रहना। इस प्रकार ये गुरु के रूप में अपने भक्तों को अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देकर सांसारिक दुख से मुक्त करके उनकी अविद्या की निवृत्ति करते हैं। ये भक्त के हृदयाकाश में प्रकाशित होकर उसके अज्ञान-रूपी अंधकार को नष्ट कर देते हैं। 













शुक्रवार, 26 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का पाँचवा अवतार कपिल मुनि और उनकी शिक्षा

ॐ गं गणपतये नमः 

भगवान विष्णु का पाँचवा अवतार :  कपिल मुनि और उनकी शिक्षा 

1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह, नारद और नर-नारायण अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे 


भगवान विष्णु ने पांचवा अवतार कपिल मुनि के रूप में लिया। इनके पिता का नाम महर्षि कर्दम व माता का नाम देवहूति था। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह के शरीर त्याग के समय वेदज्ञ व्यास आदि ऋषियों के साथ भगवा कपिल भी वहां उपस्थित थे। भगवान कपिल के क्रोध से ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गए थे। भगवान कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं। कपिल मुनि भागवत धर्म के प्रमुख बारह आचार्यों में से एक हैं।

 श्रीमद्धभागवत अनुसार : पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् प्रोवाचासुरये साङ्ख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।।९।।


पांचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य शास्त्र का जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरी नामक ब्राह्मण को उपदेश दिया l

भागवत पुराण के अनुसार कपिल के माता पिता कर्दम ऋषि और देवहुति थे । जब कर्दम ऋषि ने संन्यास लेकर गृह त्याग कर दिया तब कपिल जी ने अपनी माता को योग के ज्ञान का उपदेश दिया था जिससे उनकी मुक्ति हो गयी। कपिल ऋषि के वंशज आज भी पंजाब में पाए जा सकते हैं। कपिल जी के सांख्य योग को भगवन कृष्ण ने उद्धव को दिया था, उद्धव गीता में । 

कपिल जी के बारे में भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ..... ''सिद्धों में मैं कपिल हूँ । '' 
ऋषि कपिल का गंगा के पृथ्वी पर आगमन से सीधा सम्बन्ध है। राजा सगर ने अपने साम्राज्य की समृद्धि के लिए एक अनुष्ठान करवाया । एक अश्व उस अनुष्ठान का एक अभिन्न हिस्सा था जिसे इंद्र ने ईर्ष्यावश चुरा लिया। सगर ने उस अश्व की खोज के लिए अपने सभी पुत्रों को पृथ्वी के चारों तरफ भेज दिया। उन्हें वह ध्यानमग्न कपिल ऋषि के निकट मिला, यह मानते हुए कि उस अश्व को कपिल ऋषि द्वारा ही चुराया गया है, वे उनका अपमान करने लगे और उनकी तपस्या को भंग कर दिया। ऋषि ने कई वर्षों में पहली बार अपने नेत्रों को खोला और सगर के बेटों को देखा, इस दृष्टिपात से वे सभी के सभी साठ हजार जलकर भस्म हो गए । अंतिम संस्कार न किये जाने के कारण सगर के पुत्रों की आत्माएं प्रेत बनकर विचरने लगीं । जब दिलीप के पुत्र और सगर के एक वंशज भगीरथ ने इस दुर्भाग्य के बारे में सुना तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे गंगा को पृथ्वी पर लायेंगे ताकि उसके जल से सगर के पुत्रों के पाप धुल सकें और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सके । भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या कीऔर गंगा को पृथ्वी पे लाये ।

अब आप को कुछ विस्तार से बताना चाहूँगा (श्रीमद्धभागवत अनुसार), कपिल मुनि और उन की माता देवहुति के विषय में, 

"पिता के वन गमन के पश्चात कपिलदेव , माता देवहूति के संग बिंदु सरोवर के किनारे रहने लगे।  एक समय माता देवहूति ब्रह्मा के वचन को याद करते हुए  (कि पुत्र नारायण होगा और सत्य का पथ दिखायेगा) अत्यंत विनम्रता से कपिल जी से बोलीं :
"हे प्रभो - मैं माया के जाल में असत में डूबी हुई हूँ। अनेक जन्मों के बाद आपकी असीम कृपा से अब आप मिले हैं।  इस अज्ञानरूपी अंधकार से निकलने का प्रकाश प्रज्वलित कीजिये। हे प्रभो आपकी माया के आवरण के कारण ही मुझे "मैं" "मेरा" का भरम होता है - आप मुझे प्रकृति और पुरुष के बारे में समझाइये।  आप मायाजाल से बने संसार वृक्ष को काटने के लिए मेरी कुल्हाड़ी हैं।"
माता की इन बातों को सुन कर कपिल देव (श्री नारायण) प्रसन्न मन से बोलने लगे:
हे माते , योगी आत्म परायण हो कर मोहबंधन को काट देता है।  वह सुख और दुःख से मोह को प्राप्त नहीं होता। आपको वही योग ज्ञान बता रहा हूँ , जो ज्ञान मैंने इससे पहले उन संतों योगियों को दिया था जो सत जानने को तत्पर थे।  
जीवात्मा अपने बंधन एवं मुक्ति के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है।  तीनों गुणों (सतो रजो तमो-गुण ) में उसकी आसक्ति ही उसे बंधन में बांधती है और इनसे परे होना परमात्मा के पास ले जाता है। काम क्रोध लोभ और मोह - "मैं" से जन्म लेते हैं।  मैं (अहम) से मुक्ति ही इन सब से मुक्त करती है।  जब मन आत्म ज्ञान युक्त हो जाए , तब संसार से स्वयं ही संन्यास हो जाता है।  परमात्मा से एकत्व सर्वश्रेष्ठ योग है।   

संसार से मोह बंधन करता है। और वही मोह जब परमात्मा से हो जाए तो बंधन मुक्त कर देता है।  तब व्यक्ति सहिष्णु , दयायुक्त और सब जीवों के प्रति अनुकूल हो जाता है, और किसी के प्रति उसका शत्रुभाव नहीं रह जाता।  वह उस मार्ग पर स्वतः चलने लगता है जो शास्त्र बताते हैं। 

भक्ति मार्ग बड़ा आसान है और इसका यात्री सब जीवों के प्रति दयावान और अनुकूल प्रकृति का हो जाता है। जो मुझ तक आना चाहें वे अपने मोह और बंधन को काटने के सीधे प्रयास को कठिन पाते हैं।  वे अपने मोह के पात्र की जगह मुझे बदल दें - इससे विषय वस्तुओं में उनका मोह स्वतः ही छूट जाएगा और वे निः संग हो जाएंगे।  अब वे ज्ञानी साधुओं के सत्संग में रहें और उनके साथ रह कर सदा प्रभु की लीलाओं का वर्णन सुनने से स्वयं ही उनकी आसक्ति प्रभु की तरफ लक्षित हो जायेगी। भक्त मना सज्जनों से लगातार मेरी लीला गाथाएं सुनने से स्वतः ही भक्ति मन में उपजेगी - और जो मन बंधन को ले जाता था वह स्वयं ही मुक्ति की ओर अग्रसर होगा। जो व्यक्ति तीनों गुणों से पर होकर मुझ पर ही एकाग्र होते हैं वे जीवन में ही मुक्ति के योग्य हैं।  

देवहूति ने प्रश्न किया : सच्ची भक्ति कैसे होगी ? सत्य का स्वरुप क्या होगा ? मुझ अल्पबुद्धि को ठीक से समझाइये।  तब कपिलदेव ने माँ को सत्य का ज्ञान दिया।  

जैसे जठराग्नि भोजन को पचा देती है उसी तरह स्थितप्रज्ञ मुझ में स्थिर मना हो कर मायाजाल को काट देते हैं। जिनकी बुद्धि स्थिर हो जाती है वे माया से नहीं भटकते और जन्म मृत्यु के चक्र से निकल जाते हैं।  मेरी इच्छा से पवन चलती है,  इंद्र वर्षा कराते हैं , अग्नि प्रज्ज्वलित हैं और जन्म मरण का चक्र काल चक्र चलता है। मुझमे स्थिर बुद्धि वाले ज्ञानी इन सब भयों से मुक्त हो जाते हैं।  

हमारे भीतरका आत्मा ही पुरुष है,  प्रकृति आत्मन का आवरण है। पुरुष अनादि अनंत है, निर्गुण है। प्रकृति की दो प्रमुख शक्तियां हैं - आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति।  प्रकृति के तीनों गुण  (सतो तमो रजो) जब संतुलन में हों तो वह निर्गुण लगती है।  निर्गुण पुरुष समय भी है।  जब समय चलायमान हो तो वह प्रकृति के तीनों गुणों के संतुलन को उत्तेजित करता है और गुणों में असंतुलन आ जाता है।  पहले राजस प्रकट होता है, फिर सतो और तमो। जब गन कर्म में आएं तब आवरण और विक्षेप शक्तियां भी पृथक प्रकट होती हैं और आवरण के कारण जीवात्मा अपने स्वरूप को भूल जाता है। पुरुष की इस स्थिति को अविद्या कहते हैं। इस अविद्या की स्थिति में विक्षेप शक्ति माया का प्राविर्भाव करती है।  जीवात्मा इन में उलझ कर स्वयं को भुला देता है और संसार में उलझता है।  जो आत्मा / परमात्मा / पुरुष इस से प्रभावित नहीं हुआ, वही ईश्वर/ मूलपुरुष/ भगवान  है। 

सब योग इसी ईश्वर तक जाने के अलग अलग मार्ग हैं। जो यह सत जान ले वह ईश्वर है।  जो ईश्वर को पा ले वह ईश्वर को "ढूंढ" नहीं लेता बल्कि स्वयं ईश्वर हो जाता है। जीवात्मा जान लेता है कि वह परमात्मा / ईश्वर  है भक्ति योग भी यहीं पहुंचाता है और सांख्य योग भी।  भक्ति योग में प्रेम की वह अवस्था प्राप्त होती है जहां भक्त भगवान हो जाए और उसकी अपनी कोई पहचान न रहे, सांख्य योग ज्ञान की वह अवस्था है जहां योगी आवरण और विक्षेप शक्तियों से पृथक होकर अपने को पुरुष रूप में जान ले।  

मूलपुरुष अनादि अनंत है , सर्व व्यापी है और सारे ब्रह्माण्ड उसी में निवास करते हैं। अपनी ही इच्छा से उस सर्व कारणों के कारण ने संसार के निर्माण का निर्णय लिया और प्रकृति ने पुरुष की इच्छा मात्र से सृष्टि की। संसार तीन गुणों पर आधारित है  और जीवात्माएं इन्ही तीन गुणों के प्रभाव से कर्म करती हैं। कर्म में संग होने से बंधन होता है और कर्म निष्काम और निर्मोह से होने से मुक्ति।  जब व्यक्ति अपने को कर्म का कर्ता मानता है तो वह उस कर्म के फल से जुड़ जाता है, और बंधन में बंध जाता है ।   

१. पंचतत्व - आकाश, वायु , अग्नि जल और पृथ्वी 
२. इनके गुण - शब्द , स्पर्श , रंग , स्वाद , गंध 
३. पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है - इन पांच गुणों के लिए - कान आदि,
४. पांच कर्मेन्द्रियाँ - मुंह,हाथ, पैर, जननेंद्रियां, एवं मल त्याग के अंग 
५. इन बीस के साथ - चार सूक्ष्म स्वभाव हैं -मन , बुद्धि , अहंकार और चैतन्य 

यह चौबीस "सगुण ब्रह्म" के प्राकट्य हैं।  निर्गुण ब्रह्म पदार्थ से नहीं समझा जा सकता। ये चौबीस प्रकार के तत्व त्रि-गुण (सतो , रजो तमो) , काल के चक्र से बिंधे कर्म चक्र में घूमते हैं। पुरुष ने जब इन गुणों वाली प्रकृति में प्रवेश किया तो संतुलन बिगड़ गया और हिरण्यमय प्रकट हुई। सतोगुण वासुदेव नाम से प्रकट हुए, संकर्षण शेषनाग हुए।  विराट पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ , फिर अंडाकार ब्रह्माण्ड हुआ।  यह "विशेष" कहलाया।  

जीवात्माओं ने शरीर धारण किये।  जैसे थाली में पानी भर कर चन्द्रमा को  देखते हुए, पानी हिलने से चन्द्र हिलते दीखते हैं किन्तु असल में स्थिर  होते हैं, उसी तरह शरीर में वास करने वाला जीवात्मा उस शरीर के बदलाव से परिवर्तित नहीं होता। अहंकार जनित "मैं करता हूँ - यह मेरा कर्म और यह मेरा फल है" की भावना से जीवात्मा भटक जाता है। जब व्यक्ति ज्ञान और भक्ति के मार्गों पर चलता है , तब बंधन छूट जाते हैं।  

देवहूति जी ने पूछा - हे ब्राह्मण - जैसे पृथ्वी के बिना गंध और जल के बिना रस नहीं हो सकते - वैसे ही माया से अलग जीव कैसे होगा ? 

कपिल जी ने कहा - हे देवी - जीवात्मा संसार पर निर्भर नहीं होता ।  जब वह माया बंधन को तोड़ देता है तब वह जान लेता है कि वह हमेशा संसार से पृथक था।  मुझे तत्वरूप में जानने वाला फिर से भव कूप में नहीं पड़ता। हे मनुकुमारी , अपने कर्म को धर्म रूप में करने वाला कर्म से नहीं बंधता , क्योंकि उसका कर्म फल की कामना से नहीं होता। 

परम्परागत कर्मकांडी धर्म का प्रदर्शन, और धर्म, पृथक पृथक होते हैं।  जब जीवात्मा स्थितप्रज्ञ हो, तब मौन, योग, ब्रह्मचर्य, शौच , और आत्मसंयम स्वतः ही बाह्य रूप से प्रकट होते हैं । लेकिन पाखंडी बाहरी रूप से यह सब गुण प्रकट करते हुए भी भीतर से संसार में लिप्त बना रहता है।  

सच्चा योगी प्राणायाम का अभ्यास करता हुआ अपने मन को केंद्रित करता है।  उसका मन प्रभु में स्थित हो जाता है और वह उनके दर्शन कर लेता है।  उस दिव्य रूप के अलौकिक सौंदर्य के दर्शन के पश्चात फिर संसार में ऐसा कुछ नहीं बचता जो योगी को दोबारा आसक्त कर सके।  सुन्दर से सुन्दर वस्तु भी उस दिव्य सौंदर्य के आगे फीकी हो जाती है।  जैसे व्यक्ति अपने आप को अपने पुत्र, जमीन, धन से पृथक समझ पाटा है, वैसे ही दिव्य साक्षात्कार के उपरान्त व्यक्ति खुद को संसार से पृथक देख पाता है।  अपने सत्य स्वरुप को जानने वाला समदृष्टा हो जाता है क्योंकि वह गाय, संत , कुत्ते , वृक्ष , और चांडाल , सब में एक ही परम को देखता है।

माता देवहूति जी को योग ज्ञान देकर उनकी आज्ञा लेकर कपिल जी पूर्वोत्तर को चले गए।  उनकी दीक्षा पर चलते हुए माता ने तपस किया।  उनकी अविद्या लुप्त हुई और वे ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हुईं।  जिस स्थान पर उन्होंने ब्राह्मत्व प्राप्त किया वह सिद्धपाद नामक तीर्थ स्थल हुआ।  उधर कपिल जी पूर्वोत्तर को गए जहां सिद्ध, चरण और गन्धर्वों ने उनकी आराधना के।  वरुणदेव  उन्हें अर्घ्य दिया और अपने भीतर तपस का स्थान दिया, जहां कपिल जी ने तपस किया।   

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आप को आज का ब्लॉग कैसा लगा कमेंट जरूर करना। कल फिर मुलाकात होगी आप से पढ़ना न भूले। आप का दिन मंगलमय हो। 












गुरुवार, 25 मई 2017

आप जानते है भगवान विष्णु का चौथा अवतार कौन से थे क्या नाम था उनका ? : नर-नारायण

ॐ गं गणपतये नमः 

भगवान विष्णु का चौथा अवतार :  नर-नारायण 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।
1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार 

 पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि, वराह और नारद अवतार के विषय में पढ़ा।  अब आगे 

४. नर-नारायण अवतार : सृष्टि के आरंभ में भगवान विष्णु ने धर्म की स्थापना के लिए दो रूपों में अवतार लिया। इस अवतार में वे अपने मस्तक पर जटा धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं वक्ष:स्थल में श्रीवत्स के चरण थे। उनका संपूर्ण वेष तपस्वियों के समान था। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने नर-नारायण के रूप में यह अवतार लिया था। श्रीमद्धभागवत अनुसार : 

तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तपः ।।८।।

धर्मपत्नी मूर्ति से उन्होंने नर - नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया इस अवतार में उन्होंने ऋषि बन कर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की नर नारायण नाम के दो ऋषियों के रूप में भगवान् नारायण ने चौथा अवतार लिया। नर नारायण के रूप में भगवान् ने बद्रीनाथ नाम के स्थान पर बहुत कठिन तपस्या की। वे धर्म और मूर्ति के पुत्र थे, इनका अवतार संसार के कल्याण और दुष्टों के विनाश के लिए हुआ था। उन्होंने सहस्रकवच, नाम के राक्षस का संहार भी किया। श्रीमद्भागवत पुराण में इनसे उर्वशी के जन्म की कथा दी है -जब नर और नारायण तपस्या कर रहे थे तो उनकी तपस्या से डर कर इंद्र ने कामदेव, उसके साथी वसंत और अप्सराओं को उनकी तपस्या तोड़ने के लिए भेजा। नारायण ने अपनी जंघा पर एक फूल रखा जिससे उर्वशी जैसी सुन्दर अप्सरा प्रकट हुयी, उर्वशी इंद्र की भेजी सब अप्सराओं से अधिक सुन्दर थी, उसे भी उन्होंने उनसब के साथ भेज दिया, वे भी अपमानित होकर उर्वशी को अपनी साथ ले गये। नर शेष के अवतार और नारायाण विष्णु के अवतार हैं, महाभारत में अर्जुन को नर और कृष्ण को नारायण कहा गया।

जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल मुलाकात होगी।  भगवान विष्णु जी ४  वें अवतार के साथ। पढ़ना मत भूलिए। 


बुधवार, 24 मई 2017

नारद अवतार - भगवान विष्णु का तीसरा अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! आपने अब तक भगवान विष्णु के २४ अवतारों में १० अवतारों का वर्णन पढ़ा।
1- श्री सनकादि मुनि, 2- वराह अवतार, 3- नारद अवतार, 4- नर-नारायण, 5- कपिल मुनि, 6- दत्तात्रेय अवतार, 7-  यज्ञ, 8- भगवान ऋषभदेव, 9- आदिराज पृथु, 10- मत्स्य अवतार  
पिछले ब्लॉग में आप ने श्री सनकादि मुनि और वराह अवतार के विषय में पढ़ा अब आगे 
३- नारद अवतार : श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।नारद ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। 
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - ''देवर्षीणाम्चनारद:।.'' अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। 
नारद जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है। परन्तु रामायण में एक ऐसी कथा का उल्लेख है जो बताता है कि एक बार नारद जी के मन में भी विवाह करने की प्रबल इच्छा जाग उठी। अगर मन में किसी वस्तु को पाने की बहुत इच्छा हो जाये तो वह आत्मा में बस जाती है और अगर वह इच्छा पूरी न हो पाए तो उस इच्छा को पूरा कने के लिए एक और जन्म लेना पड़ता है। नारद जी को भी अपनी इसी इच्छा के कारण धरती पर जन्म लेना पड़ा।एक बार एक अनुपम सुंदरी को देख कर नारद जी का मन डगमगा गया तथा उनके मन में उस सुंदरी से विवाह करने की तीव्र इच्छा जाग उठी। भगवान विष्णु ने नारद जी को समझाया और नारद जी ने उनके कहे अनुसार विवाह की इच्छा त्याग दी। परन्तु वह उस इच्छा को केवल ऊपरी तौर पर त्याग सके, आंतरिक इच्छा को वह मिटा ना सके। अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए नारद जी को मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा।इस जन्म में इनका नाम ‘संत श्री सुरसुरानंद’ था। कहा जाता है कि इनके शुभ संस्कारों के समय एक व्यक्ति आता था। जो खुद को इनका मामा और अपना नाम नारायण बताता था। यह व्यक्ति उत्सव समाप्त होने के बाद कहां चला जाता था, किसी को पता नहीं चलता था।इसी व्यक्ति ने सुरसुरानंद जी को काशी जाकर श्री रामानंदाचार्य से शिक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी थी। संत कबीर, रैदास, धन्ना, नाभादास भी श्री रामानंदाचार्य के शिष्यों में शामिल थे। सुरसुरानंद जी श्री रामानंदाचार्य के पास पहुँच कर उन्हें बताया कि उनके नारायण मामा ने उन्हें यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा है। यह बात सुन कर श्री रामानंदाचार्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने सुरसुरानंद जी को अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।एक दिन सत्संग के समय शंख की ध्वनि गूंजी तो सुरसुरानंद जी बेहोश हो गये। जब वे बेहोश थे उन्हें सुनाई दिया कि मनुष्य रूप में तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है क्योंकि नारद रूप में तुम्हारी विवाह करने की बहुत प्रबल इच्छा थी। इस जन्म में तुम्हारी यह इच्छा पूरी हो जाएगी। बेहोशी के समय सुरसुरानंद जी को यह भी ज्ञात हुआ कि मामा रूप में स्वयं भगवान विष्णु इनकी सहायता करने के लिए आते हैं।
सुरसुरानंद जी का विवाह सुरसुरी देवी से हुआ। यह विवाह श्री रामानंदाचार्य ने करवाया। देवी सुरसुरी श्री रामानंदाचार्य की ही एक शिष्या थी। इस तरह धरती पर जन्म लेकर नारद जी की विवाह की इच्छा पूरी हुई। सुरसुरानंद जी ने अपने जीवनकाल में 500 ध्रुपद बंदिशों की रचना की थी जो आज भी रामानंदी ध्रुपद नाम से प्रचिलित हैं।

सोमवार, 22 मई 2017

क्या ? आप जानते है : भगवान विष्णु का दूसरा अवतार: वराह अवतार

ॐ गं गणपतये नमः 






यह दोनों दैत्य जन्म उपरांत ही बड़े हो गए.  इनका शरीर वज्र के समान कठोर और विशाल हो गया, दोनों बलवान थे, और संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे इसलिए हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया इनकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने इन्हें दर्शन दिए वरदान मांगने को कहा, दोनों भाइयों ने यह वर मांगा कि हे प्रभु कोई भी युद्ध में हमें पराजित न कर सके और न कोई मार सके. ब्रह्माजी ने उन्हें यही वरदान देकर अपने लोक चले जाते हैं. ब्रह्मा जी से वरदान पाकर हिरण्याक्ष और भी अधिक उद्दंड और निरंकुश बन गया, तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अनेक अत्याचार करने लगा और
तीनों लोकों को जीतने निकल पडा़ वह इन्द्रलोक में पहुंचा देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार हो गया इसके बाद दैत्य हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में पहुंचा और वरुण देव को युद्ध के लिए ललकारा, हिरण्याक्ष के वचन सुनकर वरुण देव क्रोद्धित हुए परंतु अपने क्रोद्ध को हृदय में दबाकर शांत भाव मुस्कुराते हुए बोले कि हो सकता है की तुम महान योद्धा और शूरवीर हो
परंतु श्री विष्णु से अधिक नहीं तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो महान हो अतः उन्हीं के पास जाओ वही तुम्हारे साथ युद्ध कर सकते हैं और तुम्हें पराजित करेंगे. वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष अत्यधिक क्रोद्धित होकर भगवान विष्णु की खोज में निकल पड़ता है, देवर्षि नारद से उसे ज्ञात होता है कि भगवान विष्णु इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं. तब हिरण्याक्ष समुद्र के नीचे रसातल में जा पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि वाराह अपने दांतों पर पृथ्वी को उठाते हुए जा रहा है. दैत्य,  वाराह को असभ्य भाषा मे अभद्र वचन कहते हुए पृ्थ्वी को ले जाने से रोकता है। 
वाराह पर अपनी बातों का असर न होता देख हिरण्याक्ष हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर प्रहार करता है तब भगवान हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर उसे दूर फेंक देते हैं वह त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु को मारने का प्रयास करता है लेकिन शीघ्र ही भगवान वाराह सुदर्शन चक्र द्वारा हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध होता है और अन्त में भगवान वाराह के हाथों से हिरण्याक्ष का वध होता है.

वराह मंत्र | Varaha Mantra