शुक्रवार, 31 मार्च 2017

चौथा अध्याय : ज्ञानकर्मसंन्यासयोग (श्लोक संख्या - 1-26)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


ज्ञानकर्मसंन्यासयोग  
चौथा अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब तक मित्रों आप ने पढ़ा भगवान श्रीकृष्णजी ने तीसरे अध्याय में कर्मयोग को बताया अब आगे ----

श्रीभगवानुवाच - 

यही योग जिस को नहीं है फ़नाह,
विवस्वान को मैंने पहले दिया। 
मनु ने लिया फिर विवस्वान से,
मनु से लिया इस को इक्ष्वाकु ने। (१)

यही नस्ल-दर आया है योग,
यही राज ऋषियों ने पाया है योग। 
मगर अब है दौर-ए ज़मां से यह हाल,
कि इस योग को आ गया है ज़वाल।(२)

यही योग का आज राज़-ए कदीम,
बताया है मैंने तुझे ऐ नदीम। 
किया तुझ पे सर्र-ए खफ़ी आशिकार,
कि तू भक्त मेरा है और दोस्तदार। (३)

अर्जुन उवाच ---
कहा सुन के अर्जुन ने सुनिये हजूर,
जहाँ में हुआ आप का अब ज़हूर। 
विवस्वान पहले ही मोजूद था,
तो योग आप से उस ने क्योंकर लिया ? (४)

श्रीभगवानुवाच --

सुन अर्जुन हुए हैं यहाँ बार-बार,
तुम्हारे हमारे जन्म बेशुमार। 
मुझे हाल इन सब का मालूम है,
तेरा हाफ़जा इन से महरूम है। (५)

मेरी ज़ात है मालिक-ए कायनात,
न इस को वलादत न इस को ममात। 
जो काम अपनी फ़ितरत को लाता हूँ मैं,
ज़हूर अपनी माया से पाता हूँ मैं। (६)

तनज्ज़ल पे जिस वक्त आता है धर्म,
अधर्म आ के करता है बाज़ार गर्म। 
यह अन्धेर जब देख पाता हूँ मैं,
तो इंसाँ की सूरत में आता हूँ मैं। (७)

भलों को बुरो से बचाता हूँ मैं,
बुरों को जहाँ से मिटाता हूँ मैं। 
जड़े धर्म की फिर जमाता हूँ मैं,
अयाँ हो के युग-युग में आता हूँ मैं। (८)

जो अर्जुन समझ लें इन असरार को,
खुदाई जनम और किरदार को। 
वो मर कर मेरे वस्ल से शाद है,
तनासुख़ के चक्कर से आज़ाद है। (९)

कई महव मुझ में मुझी में मकीम,
तआल्लुक से आज़ाद बेरंज - ओ बीम। 
सदा ज्ञान तप से करे पाक दिल,
मेरी ज़ात आली में जाते हैं मिल। (१०)

मेरे पास जिस राह से लोग आयें,
मैं राज़ी हूँ अर्जुन मुराद अपनी पायें। 
इधर से चलें या उधर से चलें,
मेरे सब हैं रस्ते जिधर से चलें। (११)

जो कर्मों के फल के हैं तालिब यहाँ,
करें देवताओं पे कुरबानियाँ। 
कि फ़िल्फ़ौर दुनिया में इन्सान की,
मुरादें हो कर्मों से हासिल सभी। (१२)

बनाये हैं मैंने जो ये वरन चार,
ये कर्मों गुणों की है तकसीम-ए कार। 
मैं खालिक हूँ इन का मगर बिलज़रूर,
अमल से बरी हूँ तग़य्युर से दूर। (१३)

न कर्मों का होता है मुझ पर असर,
न कर्मों के फल पर है मेरी नज़र। 
जो ऐसा समझता मुझे पाक है,
वो कर्मों के बन्धन से बेबाक है। (१४)

सलफ़ के बुजुर्गों  ने पाकर यह बात,
किये काम दुनिया में बहर - ए  निजात।
इसी तरह तू भी किए जा अमल, 
बुजुर्गों के नक्शे कदम ही पे चल। (१५)

सुन अब मुझ से कर्मों अकर्मों का राज,
न दाना भी जिन में करे इमतियाज़। 
बताता हूँ कर्मों का रस्ता तुझे,
जो आज़ाद कर देगा संसार से। (१६)

यह लाज़िम है कर्मों को पहचान तू,
बुरे कर्म जो हैं उन्हें जान तू। 
अकर्मों को कर्मों से कर ले जुदा,
कि गहरा है कर्मों का रस्ता बड़ा। (१७)

वो इंसाँ जो कर्मों में देखे अकर्म,
अकर्म उस को आये नजर ऐन कर्म। 
वो लोगों में दाना है और होशियार,
वो योगी है गो सब करे कार-ओ बार। (१८)

न ख़्वाहिश की हो काम में जिस के लाग,
जला दे अमल जिस के उरफ़ा की आग। 
अमल में समर से जो हैं बेनियाज़,
है दाना वूही पेश दाना - ए राज। (१९)

अमल में नहीं जिस को फल से लगन,
दिल - ए मुतमैयन में रहे जो मगन। 
सहारा किसी का न ले एक पल,
अमल उस का है ऐन तर्क - ए अमल। (२०)

उम्मीद-ओ हवस से न है कुछ लगन,
जो काबू है मन तो कब्ज़े में तन। 
जो तन काम में मन रहे ध्यान में,
तो पल भी न गुजरेगी इस्यान में। (२१)

जो मिल जाये लेकर वही शाद है,
न हासद न पाबन्दे इज़दाद है। 
बराबर है जिस के लिए जीत-हार,
अमल में अमल का नहीं वो शिकार। (२२)

तअल्लूक से जो पाक आज़ाद है,
जो उरफाँ में कायम है दिल शाद है। 
अमल यज्ञ की खातिर करे जो सदा,
तो कर्म  होते हैं सारे फ़ना। (२३)

जो क्रिया में देखे ख़ुदा ही ख़ुदा,
है अग्नि ख़ुदा और हवि भी ख़ुदा। 
हवन और हवन करने वाला वो ही,
ख़ुदा से जुदा वो न होगा कभी। (२४)

कई कर्म योगी हैं इन से अलग,
वो बस देवताओं को देते हैं यज्ञ। 
जला कर कई आतिश-ए कुबरिया,
करें यज्ञ को इस यज्ञ के अन्दर फ़ना। (२५)

कई ज़ब्त दिल से जलाये मुदाम,
समाअत -ए  हसीं दूसरी भी तमाम। 
कई हिस की आतिश में कर दें फ़ना,
सब आशिया - ए महसूस मिसल - ए सदा। (२६)




जय श्रीकृष्ण मित्रों !  













गुरुवार, 30 मार्च 2017

तीसरा अध्याय : कर्मयोग (हिंदी में व्याख्या)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


कर्मयोग 
तीसरा अध्याय 

जय श्री कृष्ण मित्रों ! आज तीसरे अध्याय की हिंदी में व्याख्या है। अर्जुन बोले : हे जनार्दन !  यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ट मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगते है ? (१) आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे है।  इसलिए उस एक बात को निश्तित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊ। (२) श्रीभगवान बोले : हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमे से साख्ययोगियो की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियो की निष्ठा कर्मयोग होती है। (३) मुनष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। (४) निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता , क्योकि सारा मुनष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया है। (५) जो मूढ़बुद्धि मुनष्य समस्त इन्द्रियों  हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयो का चिंतन करता रहता है। (६) किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग  आचरण करता है, वही श्रेष्ट है। (७) तू शास्त्रयज्ञ के द्वारा विहित कर्त्तव्यकर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ट है तथा कर्म न करने  तेरा शरीर - निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा। (८) यज्ञ के निमित्त किये जानेवाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है।  इसलिये हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित ही भलीभांति कर्त्तव्य कर्म कर। (९) प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञसहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोग को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। (१०)  तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओ को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगो को उनन्त करें।  इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उनन्त करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। (११) यज्ञ के द्वारा बढाये हुए देवता तुम लोगो को बिना मांगे ही इच्छित भोग निश्चित ही देते रहेगें।  इस प्रकार उन देवताओ के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। (१२) यज्ञ से बचे हुए अन्न को खानेवाले श्रेष्ट पुरुष  पापो से मुक्त हो जाते है और  जो पापी लोग अपना शरीर - पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते है, वे तो पाप को ही खाते है। (१३) सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होनेवाला है।  कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान।  इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतितिष्ठत है। (१४,१५) हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नही बरतता अर्थात अपने कर्त्तव्य का पालन नही करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगो में रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। (१६) परंतु जो मनुष्य आत्मा  ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तवय नहीं है। (१७) उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने  कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मो के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचितमात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। (१८) इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्त्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। (१९) जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम् सिद्धि को प्राप्त हुए थे।  इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए  भी तू कर्म करने ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है। ( २०) श्रेष्ट पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मुनष्य - समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है। (२१) हे अर्जुन ! मुझे इन तीनो लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और  कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। (२२) क्योकि हे पार्थ ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतू तो बड़ी हानि हो जाय, क्योकि मनष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते है। (२३) इसलिए यदि मैं कर्म  करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट  जाये और मैं संकरता का करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करनेवाला बनूँ। (२४) हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते है, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। (२५) परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहये कि वह शस्त्ररहित कर्मों  आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उन्पन्न न करे किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए। (२६) वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जताई है  तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है , ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा मानता है। (२७) परन्तु हे महाबाहु! परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है। (२८)माया के प्रभाव से मोह-ग्रस्त हुए मनुष्य सांसारिक कर्मों के प्रति आसक्त होकर कर्म में लग जाते हैं, अत: पूर्ण ज्ञानी मनुष्य को चाहिये कि वह उन मन्द-बुद्धि (सकाम-कर्मी) वालों को विचलित न करे। (२९)अत: हे अर्जुन! अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर। (३०)जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। (३१)रन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये। (३२)सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होकर ही कार्य करते हैं, यधपि तत्वदर्शी ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार ही कार्य करता दिखाई देता है, तो फिर इसमें कोई किसी का निराकरण क्या कर सकता है? (३३)सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति (राग) और विरक्ति (द्वेष) नियमों के अधीन स्थित होती है, मनुष्य को इनके आधीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनो ही आत्म-साक्षात्कार के पथ में अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं। (३४)दूसरों के कर्तव्य (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-पालन (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है। (३५)अर्जुन ने कहा - हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी किस की प्रेरणा से पाप-कर्म करता है, यधपि ऎसा लगता है कि उसे बल-पूर्वक पाप-कर्म के लिये प्रेरित किया जा रहा है। (३६)श्री भगवान ने कहा - इसका कारण रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम(विषय-वासना) और क्रोध बडे़ पापी है, तू इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझ। (३७)जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है, उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है। (३८)हे कुन्तीपुत्र!! इस प्रकार शुद्ध चेतन स्वरूप जीवात्मा का ज्ञान कामना रूपी नित्य शत्रु द्वारा ढका रहता है जो कभी भी तुष्ट न होने वाली अग्नि की तरह जलता रहता है। (३९)इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामनाओं के निवास-स्थान होते हैं, इनके द्वारा कामनायें ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोह-ग्रस्त कर देती हैं। (४०)अत: हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर। (४१)हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है। (४२)इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार। (४३)
तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ 
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बुधवार, 29 मार्च 2017

तीसरा अध्याय : कर्मयोग (श्लोक संख्या - 26-43)

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


कर्मयोग 
तीसरा अध्याय 



जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब आगे ----

श्रीभगवानुवाच ----
अगर मूर्खों में अमल का हो जोश,
ज़ज्जब  न इन को करें एहले होश।
करें योग में रह के खुद कार - ओ बार,
यूँ ही उन को रक्खें वो मसरूफ़-ए कार। (२६-श्लोक) 

यह दुनिया के रौनक यह कामो की धुन,
सबब इन का असली है फितरत के गुन। 
मगर जिस के दिल में अहंकार है,
समझता है खुद को कि मुखतार है। (२७-श्लोक)

ज़बरदस्त अर्जुन हो जिस पर ऐया,
गुणों और कर्मों का राज़ - ए निहाँ। 
रहे बे - ताल्लुक कि दुनिया के काम,
गुनों पर गुनों के अमल का है नाम। (२८-श्लोक)

वो मूरख जो माया के धोखे में आये,
गुणों और अफ़्फ़ाल से दिल लगाये। 
वो जाहिल है और अक्ल में ख़ामकार,
न दुविधा में डाले उन्हें होशियार। (२९-श्लोक)

तू मन अपना परमात्मा में लगा,
खुदी-ओ हवस छोड़ मत जी जला। 
मुझे सौप दे काम सब बे-दरंग,
उठ अर्जुन उठ अर्जुन ! हो मसरूफ़ -ए जंग। (३०-श्लोक)

जो हैं मेरी तालीम पर कारबन्द,
करें नुक्ताचीनी को जो नापसंद। 
अक़ीदत से पाबन्द - अरशाद हैं,
वो कर्मों के बन्धन से आज़ाद हैं। (३१-श्लोक)

जो आमल नहीं मेरी तलकीन पर,
जो तकरार-ओ हुज्जत करें बेशतर। 
अलूम उन के हैं सब फ़रेब-ओ फ़तूर,
वो ज़ाहिल तबाही में आये ज़रूर। (३२-श्लोक)

कोई इल्म से लाख पुरनूर है,
मगर अपनी फ़ितरत से मज़बूर है। 
बशर अपनी फ़ितरत बदलता नहीं,
यहाँ जबर से काम चलता नहीं। (३३-श्लोक)

कभी दिल को रग़बत हो महसूस से,
कभी दिल को नफ़रत हो महसूस से। 
कभी राहज़न हैं दोनों न मरऊब हो,
तू ग़लबे से इन के न मग़लूब हो। (३४-श्लोक)

न ले गैर का धर्म गो खूब है,
कि धर्म अपना नाकिस भी मरगूब है। 
जो मरना पड़े धर्म पर अपने मर,
तुझे गैर के धर्म में है ख़तर। (३५-श्लोक)

अर्जुन उवाच --

फिर अर्जुन ने पूछा वो कूअत है क्या,
करे जिस से इंसा गुनाह-ओ ख़ता ?
ख़ता कोई करता नहीं चाह से,
वो सब कुछ करे जबर-ओ अकराह से ? (३६-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच ----

सुना यह तो भगवान् बोले कि बस,
ग़ज़बनाक दुश्मन है तेरी हवस। 
समझ यह रजोगुण कि औलाद है,
यह लोभी है, पापी है जल्लाद है।  (३७-श्लोक)

धुआँ रु-ए आतिश को जैसे छुपाये,
रुख़े शीशा पर जिस तरह जंग आये। 
छुपे पेट में माँ के जैसे जूनी,
हवस से छुपे ज्ञान तेरा यूंही। (३७-श्लोक)

हैं सब ज्ञान वालों की दुश्मन हवस,
यह पीछा न छोड़ेगी राहजन हवस। 
हवस आग ऐसी है कुन्ती के लाल,
कि इस आग का सेर होना मुहाल। (३९-श्लोक)

हवास - ओ दिल-ओ अक्ल ऐ नेक नाम,
हवस के लिए हैं ये तीनों मुकाम। 
यूही  ज्ञान इन्सा का रूपोश हो,
यूही तन का बाशी भी मदहोश हो। (४०-श्लोक)

इसी वास्ते अर्जुन ऐ हक-शनास,
तू कर पहले काबू में अपने हवास। 
हवस को फ़नाह कर कि है यह गुनाह,
करेगी यही इल्म-ओ उरफा तबाह। (४१-श्लोक)

हवास आदमी के हैं आला तमाम,
मगर उन से ऊँचा है मन का मुकाम। 
है मन से बड़ा मरतबा अक्ल का,
मगर अक्ल से बढ़ के है आत्मा। (४२-श्लोक)

समझ आत्मा अक्ल से है बुलन्द,
बना नफ़स को रूह का पायेबन्द। 
हवस है तेरी दुश्मन-ए ख़ौफनाक,
जबरदस्त अर्जुन इसे कर हलाक। (४३-श्लोक)


जय श्रीकृष्ण मित्रों ! तीसरा अध्याय समाप्त हुआ।  इस अध्याय की हिंदी में व्याख्या कल मिलेगी। आप इस ब्लॉग इतना पसन्द कर रहे हैं इसके लिए आप का शुक्रिया इस देश में ही नहीं विदेश में भी पसन्द किया जा रहा है। इतना प्यार देने के लिए शुक्रिया।  आप इस भागवत गीता को शेयर भी कर सकते whatapp,facebook,twitter पर भी, आप के प्यार को नज़र में रखते हुए मैंने भगवतगीता को https://dharam84lakh.wixsite.com/bhagwatgeeta इस वेबसाइट पर भी लोग.इन कर सकते है। ये आप की अपनी साइट है शेयर करे और कृष्ण प्रेम में रंगे। 

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मंगलवार, 28 मार्च 2017

तीसरा अध्याय : कर्मयोग (श्लोक संख्या - 1-25)


ॐ श्रीपरमात्मने नमः 


कर्मयोग 
तीसरा अध्याय 

जय श्रीकृष्ण मित्रों ! अब आगे ----

अर्जुन उवाच -

बता मुझ को जब्बारे गैसों - दराज़,
अमल से अगर इल्म है सरफ़राज़। 
तो रक्खा नहीं मुझ को आज़ाद क्यों,
मुझे कुश्त - ओ खूं  का है अरशाद क्यों ? (१-श्लोक)

बज़ाहिर नहीं बात सुलझी हुई,
मेरी अक्ल है इस से उलझी हुई। 
मुझे बात कतई बता दीजिये,
भलाई की राह पर चला दीजिये। (२-श्लोक)

श्रीभगवानुवाच -

सुन ऐ मेरे महसूम अर्जुन ज़रा,
दिये रास्ते मैंने दोनों बता। 
है ज्ञान उन का रस्ता जो ज्ञानी हैं लोग,
जो योगी हैं धर्म उन का है कर्मयोग।  (३-श्लोक)

कि इन्सां कभी तर्के आमाल से,
रिहा हो न कर्मों के जञ्जाल से। 
फ़क़त तर्क - ए आमाल से है मुहाल,
कि हासिल किसी को हो औज़-ए कमाल। (४-श्लोक)


जहाँ में न देखोगे तुम एक पल,
कि कोई भी फ़ारग है और बे-अमल। 
सभी काम करने पे मामूर है,
गुणों ही से फ़ितरत के मज़बूर हैं। (५-श्लोक)

जो अशिया से रोके कवाय अमल,
मगर दिल से ख़्वाहिश न जाये निकल। 
जो आशिया की उलफ़त में सरशार है,
परा - गन्दा दिल है वो मक्कार है।  (६-श्लोक)


मगर ले कवाये अमल से जो काम,
करे पहले मन से हवास अपने राम। 
लगावट न उस को समर का ख़याल,
तो है कर्मयोगी वही बाकमाल। (७-श्लोक)

जो है फर्ज़ तेरा कर उस पर नज़र,
कि तर्क - ए अमल से है बेहतर अमल। 
अमल छोड़ देने हो तुझ को तमाम,
तो मुश्किल हैं तेरे बदन का कयाम।  (८-श्लोक)

अमल जिस कदर भी है यज्ञ के सिवा,
वो दुनिया को बन्धन में रक्खें सदा। 
किये जा तू सब काम यज्ञ जान कर,
लगावट न रख और न फल पर नज़र। (९-श्लोक)

जो ख़ालिक ने इंसाँ को पैदा किया,
तो यज्ञ को भी पैदा किया और कहा। 
कि फूलो-फलो यज्ञ पे रख कर यकीं,
मुरादों की यह गाय है कामधी। (१०-श्लोक)


नवाज़ा करो यज्ञ से तुम देवता,
तुम्हे देवता भी नवाजें सदा। 
जो इक दूसरे को करो साजमन्द,
तो हासिल हो तुम को मुकाम - ए बुलन्द। (११-श्लोक)


यज्ञो से नवाजे हुए देवता,
तुम्हें नेमतें सब करेंगे अता। 
मगर ले के नेमत जो देता नहीं,
समझ लो की वो चोर है बिलयकी। (१२-श्लोक)

निकोकार खायें जो यज्ञ का बचा,
गुनाहों से करते हैं ख़ुद को रिहा। 
जो पापी ख़ुद अपनी ही ख़ातिर पकाये,
तो अपने ही पापो का भोजन वो खाये। (१३-श्लोक)

है जिन्दों का ग़ल्ले पे दार-ओ मदार,
तो ग़ल्ले का बारश पे है इन्हसार। 
हो बारश जो यज्ञ का करें एहतमाम,
मगर यज्ञ हों कर्मों से पैदा तमाम। (१४-श्लोक)


सभी कर्म हो ब्रह्म से रुनुमा,
करे ब्रह्म को रुनुमा लफ़ाना। 
सो वो ब्रह्म दुनिया पे छाया हुआ,
है यज्ञ के अमल में समाया हुआ। (१५-श्लोक)

इसी तरह दुनिया का चलता है दौर,
जो इस दौर से हट के ले राह और। 
वो ख़्वाहिश का बन्दा गुनाहगार है,
हैयात उस की दुनिया में बेकार है। (१६-श्लोक)


मगर आत्मा से है जिस को लगन,
फ़कत आत्मा से रहे जो मगन। 
सदा आत्मा ही से खुरसन्द है,
कहाँ फिर वो कर्मों का पाबन्द है। (१७-श्लोक)

न कुछ उस को अफ़्फ़ाल से फ़ायदा,
न कुछ तर्क - ए आमाल से फ़ायदा। 
न दिल बस्तगी है जहाँ से उसे,
न कुछ मुददा इयों-ऑ  से उसे। (१८-श्लोक)


रहो इसलिए तुम लगावट से दूर,
बजा लाओ फ़र्ज़ अपने सब बिल-ज़रूर। 
लगावट न रक्खो अमल में पसन्द,
इसी से मिलेगा मुकाम-ए बुलन्द। (१९-श्लोक)


अमल से बुजुर्गों ने पाया कमाल,
जनक जैसे इन्सा हुए बाकमाल। 
इसी तरह नेकी किये जाओ तुम,
जहाँ को भलाई दिये जाओ तुम। (२०-श्लोक)

कोई नामवर शख्स करता है काम,
तो करते हैं तक़लीद उस की अवाम। 
बड़ा आदमी जो बनाये असूल,
उसे सारी दुनिया करेगी कबूल। (२१-श्लोक)

मुझे देख दुनिया का देना है कुछ,
न तीनों जहानों से लेना है कुछ। 
कमी कुछ नहीं गो मुझे जीनहार,
मगर फिर भी रहता हूँ मसरूफ़ - ए कार। (२२-श्लोक)


करूँ मैं न अनथक लगातार काम,
तो रुक जायें दुनिया के धन्धे तमाम। 
चलें लोग मेरी रवश पर सभी,
करें काम वो भी न अर्जुन कोई। (२३-श्लोक)

जो तर्क-ए अमल मैं करूँ इखत्यार,
उजड़ जाय दुनिया-ए  नापायदार। 
हो वरनों का मेरे सबब घाल - मेल,
बिगड़ जाय लोगो की हस्ती का खेल। (२४-श्लोक)


हों जिस तरह नादाँ अमल में मगन,
उन्हें काम ही की लगी है लगन। 
हों वैसे ही दाना के निष्काम काम,
रहे ताकि लोगों में कायम निज़ाम। (२५-श्लोक) 



प्यारे मित्रों ! इस ब्लॉग को आप इतना प्यार दे रहे है इस के लिए धन्यवाद आप सब का। आज का ये ब्लॉग कैसा लगा आप को कमेंट करना न भूले। कल मुलाकात होगी मित्रों । आप के ह्रदय में कृष्ण भक्ति सदैव बनी रहे इसी के साथ आप सब को जय श्री कृष्ण आप का दिन मंगलमय हो। आप भी अपनी राय मुझ तक कमेंट कर के पुहँचा सकते है।

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सोमवार, 27 मार्च 2017

दूसरा अघ्याय: सांख्ययोग

सांख्ययोग 
दूसरा अघ्याय


जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय में पढ़ा संजय बोले : उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओ से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रो वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा। (१) श्रीभगवान बोले: हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योकि न तो यह श्रेष्ट पुरुषो द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।  इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो,तुझ में यह उचित नही जान पड़ती।  हे परंतप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा।  (२,३) अर्जुन बोला : हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लडूंगा ? क्योकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पुजनीय है। (४) इसलिए इन महानुभाव गुरुजनो को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी कहना कल्याणकारक समझता हूँ।  क्योकि गुरुजनो को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।  (५) हम यह भी नही जानते की हमारे लिए युद्ध करना और न करना इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ट है, अथवा यह भी नही जानते कि उन्हें हम जीतगे या हमको वे जीतेगे और जिनको मारकर हम जीना भी नही चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र है, हमारे मुकाबले में खड़े है। (६) इसलिए कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो वह मेरे लिए कहिये , क्योकि मैं आप का शिष्य हूँ , इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिये। (७) क्योकि भूमि में निष्कपट,धन -धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओ के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नही देखता हूं, जो मेरी इद्रियों को सूखनेवाले शोक को दूर कर सके। (८) संजय बोला: हे राजन ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कह कर फिर श्रीगोविन्द भगवन से "युद्ध नही करूँगा" यह सपष्ट कहकर चुप हो गए। (९) हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओ के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए -से यह वचन बोला। (१०)श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितो के जैसे वचनों को कहता है, परंतु जिनके प्राण चले गए है उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गए है उनके लिये भी पण्डित जन शोक नही करते। (११) न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नही था, तू नही था अथवा ये राजा लोग नही थे और ना ऐसे ही है कि इससे आगे हम सब नही रहेगे। (१२) जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्ता होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नही होता। (१३) हे कुंतीपुत्र ! सर्दी गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाला इंन्द्रिय और विषयो के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत ! उसको तू सहन कर। (१४) क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ट दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रीयाँ और विषयो के संयोग व्याकुल नही करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। (१५) असत वस्तु की तो सत्ता नही है और सत् का आभाव नही है इसप्रकार तत्वज्ञानी पुरुषो इन दोनों का ही तत्व देखा गया है। (१६) नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत दृश्येवर्ग व्याप्त है।  इस अवनाशी का विनाश करने कोई भी समर्थ नही है। (१७) इस नाशरहित, अप्रमये, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए है।  इसलिए हे भरत वंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर।  (१८) जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नही जानते, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है।  (१९) यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य,सनातन और पुरातन है।  शरीर के मरे जाने पर भी यह नही मारा जाता है। (२०)हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ? (२१) जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रो को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरो को प्राप्त होती है (२२) इस आत्मा को शास्त्र काट नही सकते इस को आग जला नही सकती , इसको जल गला नही सकता और वायु सूखा नही सकती (२३) क्योंकि वह आत्मा अच्छेध है, यह आत्मा अदाह्य, अकलेध और निःसंदेह अशोष्य है तथा ये आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।  (२४) यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्तय है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है।  इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्य नही है अर्थात तुझे शोक करना उचित नही है। (२५) किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मारने वाला मानता है, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नही है (२६) क्योंकि इस मन्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है इस से भी इन बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने के योग्य नही है। (२७) हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट है फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है (२८) कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नही जानता।  (२९) हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीरो में सदा ही अवध्य है।  इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नही है। (३०)  श्री भगवान अर्जुन से कहते है तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नही है अर्थात तुझे भय नही करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नही है।  (३१) हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते है।  (३२) किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नही करेगा तो स्वधर्म और के कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।  (३३) तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहनेवाली अपकीर्ति का भी कथन करेगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।  (३४) और जिनकी दृस्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा।  वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगे।  (३५) तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेगे।  उससे अधिक दुःख  और क्या होगा।  (३६) या तो तू युद्ध में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।  इस कारण हे अर्जुन तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।  (३७) जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा इस प्रकार करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा।  (३८) हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मो के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा।  (३९) इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नही है और उल्टा फलरूप दोष भी नही है , बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म -मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है। (४०)हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनंत होती है।  (४१) हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे है, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते है , जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम् प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नही है - ऐसा कहनेवाले है, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात देखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते है जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवम भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत - सी क्रियाओ का वर्णन करनेवाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं होती।  (४२,४३,४४) हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करनेवाले है, इसलिए तू उन भोगो एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष -शोकादि द्वंदों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो (४५) सब और से परिपूर्ण जलाशय की प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानेवाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६) तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उन के फलो में कभी नही इसलिय तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। (४७) हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मो को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है। (४८) इस समत्व रूप बुद्धियोग सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है।  इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतू बनानेवाले अत्यंत दीन है।  (४९) समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है।  इससे तू समत्व रूप योग में लग जा। यह समत्व रूप योग ही कर्मो में कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है (५०) श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मो से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निरविकार परमपद को प्राप्त हो जाते है।  (५१) जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा।  (५२) भांति - भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी , तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।  (५३) अर्जुन बोले: हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? (५४) श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओ को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। (५५) दुःखो की प्राप्ति होने पर जिस के मन में उद्विग्न नहीं होता सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्प्रह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए है ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।  (५६) जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस - उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। (५७) और जैसे कछुवा सब और से अपने अंगो को समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयो से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए। (५८) इन्द्रियों के द्वारा विषयो को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते है , परंतु उनमे रहने वाली आसक्ति निवृत नही होती।  इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।  (५९) हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इंद्रिया यत्त्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात हर लेती है। (६०) इसलिए साधक को चाहिए वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।  (६१) विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयो की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। (६२) क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति सी गिर जाता है। (६३) परंतु अपने अधीन किये गए अन्तःकरणवाले साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयो में विचरण करना हुआ अन्तःकरण की प्रसंनता को प्राप्त होता है।  (६४) अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का आभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में हे भलीभांति स्थिर हो जाती है। (६५) न जीते हुए मन और इंद्रियोवाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नही होती तथा भावनाहीन मुनष्य को शांति नही मिलती और शातिरहित मुनष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? (६६) क्योंकि जैसे जल में चलनेवाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयो में विचरती हुए इन्द्रियों में से मन जिस इंद्रियों के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ,(६७) इसलिए हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई है, उसीकी बुद्धि स्थिर है। (६७) सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जानता है और जिन नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते है, परमात्मा के तत्व को जाननेवाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। (६९) जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुंद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते है वैसे हे सब भोग जिस स्थितपज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना हे समा जाते है, वही पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगो को चाहनेवाला नही। (७०) जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओ को त्यागकर समतारहित, अहंकाररहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शांति को प्राप्त है। (७१) हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्तिथि है।  इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नही होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्तिथि में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है। (७२)  
इस प्रकार श्रीमदभगवतगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में सांख्ययोग द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण हुआ। 

रविवार, 26 मार्च 2017

दूसरा अघ्याय : सांख्ययोग (श्लोक संख्या - 61-72)

 ॐ श्री परमात्मने नमः 





सांख्ययोग 
दूसरा अघ्याय


जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय के ५१ - ५२ में पढ़ा अब आगे : श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मो से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निरविकार परमपद को प्राप्त हो जाते है।  (५१) जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा।  (५२) भांति - भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी , तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।  (५३) अर्जुन बोले: हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? (५४) श्रीभगवान बोले : हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओ को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। (५५) दुःखो की प्राप्ति होने पर जिस के मन में उद्विग्न नहीं होता सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्प्रह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए है ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।  (५६) जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस - उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। (५७) और जैसे कछुवा सब और से अपने अंगो को समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयो से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए। (५८) इन्द्रियों के द्वारा विषयो को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते है , परंतु उनमे रहने वाली आसक्ति निवृत नही होती।  इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।  (५९) हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इंद्रिया यत्त्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात हर लेती है। (६०)

अब आगे :

श्रीभगवानुवाच 
हवास अपने रोक और लगा मुझ में दिल,
तू सरशार हो योग में मुतसइल। 
रहें ज़ब्त में जिस के होश - ओ हवास,
वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक शनास। (६१-श्लोक)

लगाये जो महसूस अशिया से मन,
तअल्लुक बढ़े उन से और हो लगन। 
तअल्लुक से ख़्वाहिश का हो फिर ज़ऊर,
हो ख़्वाहिश से गुस्से का दिल में फ़तूर।  (६२- श्लोक)


हो गुस्से से फिर तीरगी रुनुमा,
असर तीरगी का है सहव - ओ ख़ता। 
इसी सहव से अक़्ल हो पायमाल,
जो ज़ायल हुई अक़्ल आया ज़वाल।  (६३-श्लोक)

जो करता है महसूस दुनिया की सैर,
न उल्फ़त किसी से है जिस को न वैर। 
रहे नफ़स पर ज़ब्त जिस को मुदाम,
वो तस्कीन-ए दिल से रहे शादकाम। (६४-श्लोक)

दिले पुरसकूँ में कहाँ आए रंज,
कि दुःख दूर हो जायें मिट जाय रंज। 
जो पैदा हो दिल में सकून-ओ करार,
वही अक़्ल कायम हो और उस्तवार।  (६५-श्लोक)

न हो दिल पे काबू तो दानिश मुहाल,
ना हो दिल पे काबू तो भटके ख़याल। 
परेशां ख़याली से आए न सुख,
जिसे सुख न आए सदा उस को दुःख। (६६-श्लोक)

हवास आदमी के भटकते हो गर,
हो इस हिरजा-गिरदी का दिल पर असर। 
तो दिल अक़्ल को ले चले इस तरह,
कि तूफ़ा में किश्ती बहे जिस तरह।  (६७-श्लोक)


जो इंन्सा हवास अपने रोके रहे,
न महसूस अशिया पे भटका फिरे। 
तो सुन ले मेरी बात अर्जुन कवि,
कि है कायम-उल अक्ल इंसाँ वही।  (६८-श्लोक)


जिसे रात कहती है दुनिया तमाम,
निगाहों में आरफ़ की दिन है मुदाम। 
जो दिन अहले-आलम के नज़दीक है,
वो आरफ़ की शब है कि तारीक  है। (६९-श्लोक)

समुन्दर में ग़ायब हों दरिया हज़ार,
रहेगा वो लबरेज़ और बा-वकार। 
सब अरमाँ हों गुम जिन के सीने में बस,
वुही पाये राहत न एहले हवस।  (७०-श्लोक)


जो इंसाँ करे ख़्वाहिशें दिल से दूर,
हवस का न हो जिस के दिल में फ़तूर। 
न उस में खुदी हो न हो मेर-तेर,
सकूँ उस को हासिल है दिल उस का सेर।  (७१-श्लोक)

यही है मकाम-ए वसाल - ए खुदा,
जहाँ आ के हो सब तुहम्मे फ़ना। 
दम-ए वापसी भी जो यह ज्ञान हो,
तो हासिल उसे ब्रह्म निर्वाण हो। (७२-श्लोक)


अब मित्रों मैंने आप से पिछले रविवार कुछ प्रश्नों के उत्तर पूछे थे। 
उनके उत्तर है :
१) संजय को दिव्ये चक्षु किस ने दिए और क्यों ?
उत्तर : संजय को दिव्ये चक्षु वेदव्यास जी ने दिए, इसलिए दिए की महाभारत युद्ध क्षेत्र का आखों देखा हाल धृतराष्ट्र को बता सके। 
२) अर्जुन के सारथी का क्या नाम था ?
उत्तर: अर्जुन के सारथी का नाम श्री कृष्ण था। 
३) अर्जुन के बड़े भाई का क्या नाम क्या था ? 
उत्तर : अर्जुन के बड़े भाई दो थे सबसे बड़े भाई का नाम युद्धिष्टर था और अर्जुन से बड़े भीम थे। 


 रविवार की छुट्टी का आंनद लीजिये और आज गीता का संख्या योग दूसरे अघ्याय का भी समापन हुआ। 

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शनिवार, 25 मार्च 2017

दूसरा अघ्याय : सांख्ययोग (श्लोक संख्या - 51-60)

ॐ श्री परमात्मने नमः 




सांख्ययोग 
दूसरा अघ्याय


जय श्री कृष्ण मित्रों ! कल आप ने दूसरे अध्याय १ - ४० में पढ़ा अब आगे : हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनंत होती है।  (४१) हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे है, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते है , जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम् प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नही है - ऐसा कहनेवाले है, वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात देखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते है जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवम भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत - सी क्रियाओ का वर्णन करनेवाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं होती।  (४२,४३,४४) हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करनेवाले है, इसलिए तू उन भोगो एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष -शोकादि द्वंदों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग-क्षेम को न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो (४५) सब और से परिपूर्ण जलाशय की प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानेवाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६) तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उन के फलो में कभी नही इसलिय तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। (४७) हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मो को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है। (४८) इस समत्व रूप बुद्धियोग सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है।  इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतू बनानेवाले अत्यंत दीन है।  (४९) समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है।  इससे तू समत्व रूप योग में लग जा। यह समत्व रूप योग ही कर्मो में कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है (५०) 

अब आगे -----

श्रीभगवानोवाच 

कि सरशार-ए दानिश मुनि बा-अमल,
करें सब अमल छोड़ कर उन के फल। 
जन्म के वो बन्धन से आज़ाद हैं,
सरूरे-अबद पा के दिल शाद हैं। (५१-श्लोक)


जो हो अक्ल आज़ाद जंजाल से,
निकल जाये तू मोह के जाल से। 
सुनी बात से भी करे एहतराज़,
रहे अनसुनी से भी तू बे-न्याज़।  (५२-श्लोक)

परेशां ख़याली से पाये सकूँ,
मुकद्दस ज़इफो  का गुम हो फसू। 
समाधि सी कायम हो दिल ज़ात में,
तो हासिल हो फिर योग हर बात में।  (४३-श्लोक)


अर्जुन उवाच -----

फिर अर्जुन ने पूछा यह भगवान् से,
समाधि में दिल को जो कायम करे। 
है उस कायम - उल अक्ल का क्या चलन,
हो क्या बूद-ओ बाश उसका कैसा सुखन ? (५४ - श्लोक)

श्रीभगवानुवाच ----

तो भगवान बोले जो हो महवे-जात,
जो मन से करे दूर सब ख्व्वाएशात। 
रहे जिस का दिल रूह से मुतमैअन,
उसी फर्द को कायम-उल अक्ल गिन।  (५५-श्लोक)

जो सुख से सुखी हो न दुःख से दुःखी,
न ख़ौफ उस को आये न गुस्सा कभी। 
न जज़्बो के जंजाल में आये वो,
मुनि कायम - उल अक्ल कहलाये वो। (५६-श्लोक)


बुराई जो  पहुँचे तो नालां न हो,
भलाई जो पाये तो शादाँ न हो। 
किसी से तअल्लुक न उस को लगाओ,
यही कायम-उल अक्ल का है सुभाओ।  (५७-श्लोक)



ज़रा-सा भी दे कोई कछुवे को छेड़,
तो लेता है फौरन सब आज़ा सुकेड़। 
सुकेड़े जो हर शय से अपने हवास,
वो है कायम-उल अक्ल ऐ हक-शनास। (५८-श्लोक)



करे नेमतें तर्क परहेज़गार,
मगर शोक-ए लज़्ज़त से हो बे-करार। 
उसे तर्क लज़्ज़त की लज़्ज़त मिले,
जिसे दीद-ए बारी की दौलत मिले।  (५९-श्लोक)


ख़िरद-मन्द के भी हवास - ओ ख्याल,
जो तेज़ी में आ जायें कुन्ती के लाल। 
तो मन को भी वो छीन ले जायेगे,
करें लाख कोशिश न हाथ आयेंगे।  (६०-श्लोक)






जय श्री कृष्ण मेरे प्यारे मित्रो ! आप को मेरा ये ब्लॉग कैसा लगा कृपा कमेंट करके बताये।  आप के ह्रदय में प्रभु भक्ति सदैव बनी रहे।  गीता किसी धर्म विशेष की बात न करके मानवता की बात करती है।  दुःख की वो अवस्था जब मनुष्य को ये समझ पाना मुश्किल होता है वो क्या करे तब भगवान् के ये उपदेश हम को उस अवस्था से ऊपर उठाते है हमारे नकारत्मकता पर भगवान श्रीकृष्ण के सकरतात्मक विचार का नाम है गीता , हम इस शरीर से ऊपर उठकर उस परमसत्ता को जान सके उस का नाम है गीता, आप चाहए तो शेयर कर सकते है अपने मित्रों में , कल मुलाकात होगी, पढ़ना न भूले हमारी गीता हम सब की गीता, आप का दिन मंगलमय हो 

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